चौबीस घंटे में थोड़ा समय निकालो, धर्म भारती! शुरू-शुरू
में उदासी लगेगी, लगने देना। पुराना अभ्यास है। शुरू-शुरू
में परेशानी लगेगी, लगने देना। लेकिन एक घड़ी चौबीस घंटे
में चुपचाप बैठ जाओ, न कुछ करो, न
कुछ गुनो, न माला फेरो, न मंत्र
जपो, न प्रार्थना करो, कुछ भी न
करो। चुपचाप। हां, फिर भी विचार चलेंगे, चलने दो। देखते रहना निरपेक्ष भाव से, जैसे
कोई राह चलते लोगों को देखता है, कि आकाश में उड़ती
बदलियों को देखता है। निष्प्रयोजन देखते रहना, तटस्थ
देखते रहना--बिना किसी सभी लगाव के, बिना निर्णय के,
न अच्छा न बुरा। चुपचाप देखते रहना। गुजरने देना विचारों को। आएं
तो आएं, न आएं तो न आएं। न उत्सुकता लेना आने में न
उत्सुकता लेना जाने में। और तब धीरे-धीरे एक दिन वह घड़ी आएगी कि विचार विदा हो गए
होंगे, सन्नाटा रह जाएगा।
सन्नाटा जब पहली दफा आता है तो जैसे बिजली
का धक्का लगे, ऐसा रोआं-रोआं कंप जाएगा। क्योंकि तुम प्रवेश करने लगे फिर उस
अंतर-अवस्था में, जहां गर्भ के दिनों में थे। यह गहरा
झटका लगेगा। तुम्हारा संबंध टूटने लगा संसार से, तुम्हारा
संबंध छिन्न-भिन्न होने लगा भीड़-भाड़ से। तुम संबंधों के पार उड़ने लगे। झटका तो
भारी लगेगा। जैसा हवाई जहाज उठेगा जब पहली दफा पृथ्वी से तो जोर का झटका लगेगा,
ऐसा ही झटका लगेगा। घबड़ाना मत। एक बार पंख खुल गए आकाश में,
एक बार उड़ चले, तो अपूर्व अनुभव है,
अपूर्व आनंद है!
फिर एकांत कभी दुःख न देगा। एकांत तो क्या, फिर भीड़ भी दुःख न देगी
क्योंकि तब भीड़ में भी एकांत बना रहता है। जिसको भीतर सधने की कला आ गई, वह बीच बाजार में खड़े होकर भी ध्यान में हो सकता है। दुकान पर
बैठे-बैठे काम करते-करते और भीतर धुन बजती रहेगी निस-बासर! रात-दिन! नींद में भी
उसकी धुन बजती रहेगी।
लेकिन अभी मैं समझता हूं, उदासी लगती होगी,
घबड़ाहट होती होगी, अकेलापन डराता होगा।
ये स्वाभाविक लक्षण हैं। प्रत्येक मनुष्य को इस जगत् की गलत शिक्षणा दी गई है।
सम्यक् शिक्षा होगी अगर कभी, तो हम प्रत्येक बच्चे को
अकेला होना भी सिखाएंगे। साथ होना भी सिखाएंगे, अकेला
होना भी सिखाएंगे। साथ होना इस तरह सिखाएंगे कि अकेलापन मिटे ही नहीं और साथ भी हो
जाएं। जैसे जल में कमल होता है और जल छूता नहीं--ऐसे भीड़ में भी रहना और भीड़ को
छूने भी मत देना! भीड़ में जाना भी और बचकर निकल भी आना। अपने दामन को बचाकर चले
आना। तब एक जीवन की और ही दूसरी अनुभूति है--कबीर ने कहा है--ज्यों कि त्यों धर
दीन्ही चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी रे चदरिया! फिर दामन पर
दाग नहीं लगते। फिर तुम भीड़ में भी रहो तो भी तुम्हारी चादर पर दाग नहीं लगते।
जैसी की तैसी परमात्मा के हाथ में लौटा दी जाती है, कि यह
लो रखो अपनी चादर, दी थी तुमने, हमने
जतन से ओढ़ी, जतन से उपयोग की, मगर
कोई दाग नहीं लगे।
प्रेम रंग रास ओढ़ चदरिया
ओशो
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