विचार पर्दे की तरह हमारे चित्त को घेरे हुए
हैं। उनमें हम इतने तल्लीन हैं,
इतने आक्युपाइड हैं, इतने व्यस्त हैं,
विचार में इतने व्यस्त हैं कि विचार के अतिरिक्त जो पीछे खड़ा है
उसे देखने का अंतराल, उसे देखने का रिक्त स्थान नहीं मिल
पाता। विचार में अत्यंत आक्युपाइड होना, अत्यंत व्यस्त
होना, अत्यंत संलग्न होने के कारण पूरा जीवन उन्हीं में
चिंतित होते हुए बीत जाता है, उनके पार कौन खड़ा था,
उसकी झलक भी नहीं मिल पाती है।
इसलिए ध्यान का अर्थ है: पूरी तरह
अनआक्युपाइड हो जाना। ध्यान का अर्थ है: पूरी तरह व्यस्तता से रहित हो जाना।
तो अगर हम अरिहंत-अरिहंत को स्मरण करें, राम-राम को स्मरण करें,
तो वह तो आक्युपेशन ही होगा, वह तो फिर
एक व्यस्तता हो गई, वह तो फिर एक काम हो गया। अगर हम
कृष्ण की मूर्ति या महावीर की मूर्ति का स्मरण करें, उनके
रूप का स्मरण करें, तो वह भी व्यस्तता हो गई, वह ध्यान न हुआ। कोई नाम, कोई रूप, कोई प्रतिमा अगर हम चित्त में स्थापित करें, तो
भी विचार हो गया। क्योंकि विचार के सिवाय चित्त में कुछ और स्थिर नहीं होता। चाहे
वह विचार भगवान का हो, चाहे वह विचार सामान्य काम का हो,
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, चित्त विचार
से भरता है। चित्त को निर्विचार, चित्त को अनआक्युपाइड
छोड़ देना ध्यान है।
साक्षी की साधना
ओशो
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