अगर बच्चे को हम बचपन से ही सेक्स के सारे तथ्य स्पष्ट बताना शुरू
करें, बताने चाहिए, और सेक्स के प्रति
एक आदर का भाव पैदा करें, क्योंकि वही जीवन का जन्म देने
वाला केंद्र और सूत्र है, तो बच्चे के मन में यह घाव कभी
पैदा नहीं होगा। उसे कभी भय होने का कारण नहीं होगा। वह कभी डरेगा नहीं। वह जीवन
की इस केंद्रीय शक्ति से कभी आंख नहीं छिपाएगा। उसके मन में घाव पैदा नहीं होगा,
चोट पैदा नहीं होगी। उसका मन स्वस्थ रह सकेगा।
हम सबका मन अस्वस्थ हो गया है। फिर यह अस्वास्थ्य जीवनभर चक्कर काटता
है क्योंकि बच्चे के मन में जो केंद्र बन जाते हैं, उनको पोंछना और
मिटाना बहुत कठिन हो जाता है। एक अच्छी दुनिया तभी बनेगी जब वह सेक्स को परमात्मा
की अनूठी बात स्वीकार करके आदर देना शुरू करेगी, नहीं तो
अच्छी दुनिया नहीं बन सकती।
जितना-जितना आदर, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता
है, सेक्स की भावना में प्रवेश करना मंदिर में प्रवेश जैसा
होना चाहिए। और आप शायद खयाल भी नहीं कर सकते, कल्पना भी
नहीं कर सकते कि सेक्स के प्रति निंदा के कारण पति और पत्नी दो शत्रु हैं, मित्र नहीं। मित्र हो नहीं सकते, क्योंकि मित्रता का
सेतु घृणा और कंडेमनेशन लिए हुए है। जिससे वे जुड़े हैं; वह
चीज ही, जोड़ने वाली चीज ही गलत और बुरी भाव लिए हुए है तो वह
जोड़ने वाली चीज मित्रता कैसे बन सकती है? और इस शत्रुता में
से बच्चे पैदा होते हैं, वे बच्चे बहुत शुभ, बहुत सुंदर और श्रेष्ठ नहीं हो सकते। इसी तनाव, कांफलिक्ट,
इस शत्रुता में से बच्चे आते हैं। इन दोनों का मन भयभीत, घबड़ाया हुआ, पाप से ग्रसित, पाप
से दबा हुआ, डरा हुआ, और फिर इससे
बच्चे आते हैं! इन दोनों के इस चित्त की अनिवार्य छाप उस आने वाले बच्चे में छूट
जाती है।
जिस दिन पति और पत्नी एक-दूसरे से एक पवित्रतम संबंध अनुभव करेंगे, होलीएस्ट कि ये सेक्स के क्षण, ये काम के संबंध के
क्षण पवित्रतम क्षण हैं, प्रार्थना के क्षण हैं। जिस दिन
उनका यह मिलन एक प्रेयर, एक प्रार्थना बन जाएगा, उस दिन जो बच्चे पैदा होंगे वे बहुत दूसरा संस्कार, बहुत
दूसरे बीज की तरह जगत में आएंगे। तब हम एक दूसरी प्रजा के जन्मदाता हो सकते हैं।
फिर ये बच्चे पैदाइश से ही रोग चित्त में लेकर पैदा होते हैं। और उस
रोग को फिर समाज और बढ़ाता है, और बढ़ाता है। फिर उस रोग का शोषण
करने वाले लोग हैं, वे शोषण करते हैं। और एक चक्कर शुरू होता
है जिस पर एक छोटा सा आदमी पिस जाता है बुरी तरह से।
ये सारी गंदी फिल्में, ये सारे गंदे चित्र,
यह सारा गंदा वातावरण आपकी सेक्स के संबंध में यह भ्रांत धारणा कि
प्रतिक्रिया है, उसका फल है। यह उससे पैदा हुआ है। और जो कौम
जितनी ज्यादा सेक्स के प्रति भयभीत और घबड़ाई हुई है, उस कौम
का चित्त उतना ही ज्यादा सेक्सुअलिटी से भरा हुआ है।
लेकिन हम तथ्यों को देखना नहीं चाहते, हमने हिम्मत खो दी
है। हम सोचना नहीं चाहते, हम विचार नहीं करना चाहते। हम आंख
बंद करके जैसा चल रहा है चलते रहना चाहते हैं। ऐसे नहीं हो सकता है। इस संबंध में
हमारी पूरी धारणा परिवर्तित होनी चाहिए।
सेक्स के संबंध में किसी तरह की निंदा का कोई कारण नहीं है। और जब
निंदा करते हैं और भयभीत होते हैं, घबड़ाते हैं तब भीतर
से धक्के आते हैं, चोटें आती हैं, लहरें
आती हैं उनमें हम बहते हैं तो पश्चात्ताप होता है। सब मुश्किल हो जाता है। आनंद
असंभव हो जाता है। नहीं बहते हैं, रुकते हैं तो पीड़ा हो जाती
है। जाते हैं, बहते हैं तो पीड़ा हो जाती है। सब तरफ, दोनों तरफ कुएं-खाई खड़े हो जाते हैं। इस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ, उस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ।
फिर आदमी क्या करे? तो फिर आदमी आवागमन से छुटकारे
का उपाय सोचने लगता है कि किसी तरह से संसार से ही छुटकारा हो जाए। यह संसार बड़ा
गड़बड़ है।
यह गड़बड़ हमने किया हुआ है। यह संसार गड़बड़ नहीं है। यह संसार बहुत
अदभुत रस, बहुत अदभुत आनंद को देने में समर्थ है। लेकिन हमने सब
रस विकृत कर लिया, हम पागल हो गए हैं। और इस पागल के केंद्र
पर, हमारे पागलपन के सारे केंद्र पर कामवासना बैठी हुई है।
जितने लोग पागल होते हैं उनके अध्ययन से जाहिर होता है कि उनमें से
नब्बे प्रतिशत लोग सेक्स की ही रोग के कारण पागल होते हैं। और हम भी जो डांवाडोल
होते हैं जीवन में, वह भी सेक्स है। इससे हम यह नतीजे लेने लगते हैं,
और नतीजे बिलकुल गलत होते हैं, हम अजीब नतीजे
लेने के आदी हो गए हैं। हमें क्या नतीजा लेना चाहिए यह बड़ी मुश्किल हो गई है।
देखते हैं कि सारे लोग सेक्स के कारण परेशान हैं तो हम सोचते हैं सेक्स को हटाओ,
खतम करो जीवन से।
परेशान इसलिए हैं कि आप हटाने की कोशिश कर रहे हैं तीन हजार साल से, उससे परेशान हैं। और परेशानी देखकर आप यह नतीजा लेते हैं कि हटाओ इसको,
बिलकुल खतम करो, इसकी परेशानी बंद होनी चाहिए।
हम सिखाते हैं कि बच्चों को स्कूल में गीता पढ़ाओ, कुरान
पढ़ाओ। नहीं साहब, बच्चों को स्कूल में सेक्स के बाबत सब कुछ
पढ़ाओ। गीता-कुरान की कोई जरूरत नहीं है। ये बच्चे स्कूल से स्वस्थ होकर बाहर आएं।
इनका मन साफ, अनसप्रेस्ड हो; ये दमन से
मुक्त हों। ये स्वस्थ हो सकें, ये संतुलित हो सकें। लेकिन हम
नतीजे उलटे लेते हैं।
असंभव क्रांति
ओशो
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