साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो,
तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।
लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और
तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो
सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में
लिखी परिभाषाओं से नहीं।
अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी
है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा
है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।
सौ साधकों में निन्यानचे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया
में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।
तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने
जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए।
तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद
हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए,
कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।
उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के
कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी
होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली
होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण
निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे
कैसे, कि पानी हैं?
शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि
पानी होगा, तो
हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई
संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से
ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो,
तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की
इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।
प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।
सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण
उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं।
सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका
नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें
देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।
बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी
मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी?
वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को
झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम
उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो
मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के
सारे दुख अनुभव के कारण।
तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई
पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम
पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।
इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए,
इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान
कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक
हो?
अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने
की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें
बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब
तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई,
कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।
पीव पीव लागी प्यास (दादू दयाल)
ओशो
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