एक बहुत बड़े सम्राट की मृत्यु हो गई थी। उसकी अरथी निकाली जा रही थी।
लाखों लोग उस अरथी को देखने रास्तों पर इकट्ठे हुए थे। एक बड़ी अजीब बात थी, अरथी के बाहर दोनों हाथ बाहर निकले हुए थे। जो भी देखा उसी के मन में
प्रश्न उठा, ऐसी अरथी तो कभी देखी नहीं गई जिसमें लाश के हाथ
दोनों बाहर हों। और कोई साधारण आदमी भी नहीं मरा था, एक
सम्राट की मृत्यु हो गई थी। हर कोई पूछने लगा, क्या बात है?
अरथी के बाहर हाथ क्यों निकले हुए हैं?
और तब धीरे-धीरे पता चला, मरते वक्त उस सम्राट
ने...उसका नाम सभी ने सुना होगा: अलेक्जेंडर महान, सिकंदर!
मरते वक्त सिकंदर ने कहा था, मेरे हाथ अरथी के बाहर रखे जाएं,
ताकि हर कोई यह देख ले कि मेरी मुट्ठियां भी खाली हैं।
बहुत वर्ष हो गए सिकंदर को मरे हुए। न तो उसके पहले और न उसके बाद
किसी के हाथ अरथियों के बाहर नहीं रहे हैं। लेकिन हाथ--चाहे बाहर रहें, चाहे भीतर--सारी जिंदगी के बाद खाली के खाली रह जाते हैं। और चाहे वे हाथ
सम्राट के हों और चाहे भिखारी के, इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
जिंदगी में होगा कोई भिखारी और होगा कोई सम्राट। लेकिन मौत, मौत
सबको बराबर कर देती है। और वह बराबरी खाली हाथों की बराबरी होती है। सबके हाथ समान
रूप से खाली होते हैं।
यह बात इसलिए मैंने कहनी चाही है, इस बात का स्मरण
दिलाने के लिए कि मौत जिसके हाथ खाली पाती है, जिंदगी में भी
वह खाली रहा होगा। यह असंभव है कि जिंदगी में भरा रहा हो और मौत उसके हाथ खाली
पाए। क्योंकि मृत्यु तो जीवन की ही पूर्णता है। जिस भांति हम जीते हैं उस भांति ही
हम मरते हैं। मृत्यु तो सूचना है पूरे जीवन की--कि जीवन कैसा था? तो यदि मौत खाली हाथ पाती हो तो कोई भूल में रहा होगा कि जिंदगी में भरा
था। जिंदगी में भी खाली रहा होगा।
कुछ थोड़े से लोगों को जीवन में ही यह दिखाई पड़ने लगता है कि हाथ खाली
हैं। जिनको यह दिखाई पड़ता है कि हाथ खाली हैं, वे संसार की दौड़ छोड़
देते हैं--धन की और यश की, पद की और प्रतिष्ठा की। लेकिन वे
लोग भी एक नई दौड़ में पड़ जाते हैं--परमात्मा को पाने की, मोक्ष
को पाने की। और मैं यह निवेदन करना चाहूंगा इन तीन दिनों में कि जो भी आदमी दौड़ता
है वह हमेशा खाली रह जाता है, चाहे वह परमात्मा के लिए दौड़े
और चाहे धन के लिए दौड़े। इसलिए केवल सम्राट ही खाली हाथ नहीं मरते, और भिखारी ही नहीं, बहुत से संन्यासी भी खाली हाथ ही
मरते हैं।
जीवन में जो भी पाने जैसा है वह दौड़ कर नहीं पाया जा सकता है। जीवन का
सौंदर्य और जीवन का सत्य और जीवन का संगीत कहीं बाहर नहीं है कि कोई दौड़े और उसे
पा ले। जो कुछ भी बाहर होता है उसे पाने के लिए यात्रा करनी होती है, चलना होता है। और जो भी भीतर है उसे पाने के लिए जो यात्रा करेगा वह भटक
जाएगा। क्योंकि यदि मुझे आपके पास आना हो तो मैं चलूंगा और तब आपके पास पहुंच
सकूंगा। और अगर मुझे अपने ही पास पहुंचना हो तो चलने से कैसे पहुंचा जा सकता है?
मैं तो जितना चलूंगा उतना ही दूर निकल जाऊंगा। अगर मुझे अपने पास
पहुंचना है तो मुझे सारा चलना छोड़ देना पड़ेगा, दौड़ना छोड़
देना पड़ेगा, तो शायद मैं पहुंच जाऊं।
तो एक तो रास्ता वह है जो बाहर की तरफ जाता है, जिस पर हमें चलना पड़ता है, श्रम करना पड़ता है,
पहुंचना पड़ता है। एक रास्ता ऐसा भी है जिस पर चलना नहीं पड़ता,
और जो चलता है वह कभी नहीं पहुंचता, जिस पर
रुकना पड़ता है। और जो रुक जाता है वह पहुंच जाता है। यह बात बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी।
क्योंकि हमने तो अब तक यही जाना है कि जो खोजेगा वह पाएगा, जो
चलेगा वह पहुंचेगा, और जो जितने जोर से चलेगा उतने जल्दी
पहुंचेगा। और जो जितने श्रम से दौड़ेगा उतने शीघ्र पहुंच जाएगा। लेकिन इन तीन दिनों
में मैं यह निवेदन करूंगा, जो चलेगा वह कभी नहीं पहुंचेगा।
और जो जितने जोर से चलेगा उतने ही ज्यादा जोर से अपने से दूर निकल जाएगा।
रोम रोम रस पीजे
ओशो
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