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Thursday, July 13, 2017

ऐसी कौन-सी शक्ति या प्रेरणा है जो मनुष्य को भगवान् के करीब लाने में सहायक होती है?



राजेंद भाटिया! जीवन पर्याप्त है।

और जीवन के दो ढंग हैं और दोनों परमात्मा के करीब लाते हैं। जीवन का दुःख भी आदमी को परमात्मा के करीब लाता है और जीवन का सुख भी। और जो होशियार हैं वे दोनों पंखों का उपयोग कर लेते हैं। उन्हें दुःख भी पास लाता है, सुख भी पास लाता है। जीवन का दुःख बताता है कि हम परमात्मा से दूर हैं, इसलिए दुःखी हैं।

उसमें कैसा दुःख? हम अकड़ गए हैं। हम अहंकारी हो गए हैं। हमने अपने को पृथक् मान लिया है। वही हमारे दुःख का कारण है। हमारे सारे दुःख के मूल में अहंकार है, अस्मिता है। जीवन का दुःख बताता है कि हम परमात्मा से छिटक गए हैं दूर हो गए हैं। बीमारी बताती है कि हम प्रकृति से दूर हट गए हैं। स्वास्थ्य बताता है कि हम प्रकृति के पास आ गए।

सुख-दुःख मापदंड हैं, संकेत हैं। दुःख बताता है कि तुम जो कर रहे हो वह कुछ ऐसा है जो तुम्हें परम प्रकृति से दूर ले जा रहा है। दुःख इस बात की सूचना दे रहा है कि तुम दूर हट रहे हो प्रकृति से। धर्म से दूर हट रहे हो। धर्म से दूर हटने वाले को दंड नहीं दिया जाता--दूर हटने में ही दंड मिल जाता है। 

और जब जीवन में सुख होता है तो जानना कि तुम जाने-अनजाने परम प्रकृति के करीब आ गए हो। परम प्रकृति यानी परम धर्म, या कहो परमात्मा। ये सब नामों के भेद हैं। जो तुम्हें रुचिकर हो, वही कहो। अगर वैज्ञानिक बुद्धि के आदमी हो, कहो परम प्रकृति! अगर धार्मिक बुद्धि के आदमी हो, भत्ति-भाव से भरे, कहो परमात्मा! अगर गणित पर बहुत भरोसा है तो कहो--धर्म, नियम, ताओ! ये सब उसी एक की तरफ इशारे हैं अलग-अलग तरह के लोगों के, अलग-अलग ढंग के लोगों के।

ज्योत से ज्योत जले 

ओशो

चरैवेति चरैवेति



कितने लोग मेरे साथ चले और ठहर गए! जगहजगह रुक गार, मील के पत्थरों पर रुक गए! जिसकी जितनी औकात थी, सामर्थ्य थी, वहां तक साथ आया और रुक गया। फिर उसे डर लगने लगा कि और चलना अब खतरे से खाली नहीं। किसी मील के पत्थर को उसने मंजिल बना लिया और वह मुझसे नाराज हुआ कि मैं भी क्यों नहीं रुकता हूं मैं भी क्यों और आगे की बात किए जाता

मेरे साथ सब तरह के लोग चले। जैन मेरे साथ चले, मगर वहीं तक चले जहां तक महावीर का पत्थर उन्हें ले जा सकता था। महावीर का मील का पत्थर आ गया कि वे रुक गए। और मैंने उनसे कहां, महावीर से आगे जाना होगा। महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हो चुके। इन पच्चीस सौ सालों में जीवन कहां से कहां पहुंच गया, गंगा का कितना पानी बह गया! महावीर तक आ गए, यह सुंदर, मगर आगे जाना होगा। उनके लिए महावीर अंतिम थे; वहीं पड़ाव आ जाता है, वहीं मंजिल हो जाती है।

मेरे साथ बौद्ध चले, मगर बुद्ध पर रुक गए। मेरे साथ कृष्ण को माननेवाले चले, लेकिन क्या पर रुक गए। मेरे साथ गांधी को माननेवाले चले, लेकिन गांधी पर रुक गए। जहां उन्हें लगा कि उनकी बात के मैं पार जा रहा हूं वहां वे मेरे दुश्मन हो गए। मैंने बहुत मित्र बनाए, लेकिन उनमें से धीरेधीरे दुश्मन होते चले गए। यह स्वाभाविक था। जब तक उनकी धारणा के मैं अनुकूल पड़ता रहा, वे मेरे साथ खड़े रहे। मेरे साथ तो वही चल सकते हैं, जिनकी धारणा ही चरैवेतिचरैवेति की है, जो चलने में ही मंजिल मानते हैं। जो अन्वेषण में ही, जो शोध में ही, अभियान में ही गंतव्य देखते हैं। गति ही जिनके लिए गंतव्य है, वही मेरे साथ चल सकते हैं। क्योंकि मैं तो रोज नयी बात कहता रहूंगा। मेरे लिए तो रोज नया है। हर रोज नया सूरज ऊगता है, जो डूबता है वह डूब गया। जो जा चुका, जा चुकाबीती ताहि बिसार दे!

बहु तेरे घाट 

ओशो

Sunday, July 2, 2017

विभूति

एक युवक मेरे पास आया। सच में हिम्मतवर युवक है। और बड़े साहस से उसने ध्यान के प्रयोग किए हैं। वह मेरे पास आया। वह एक यात्रा पर गया था और बस में बैठा था। कुछ करने को नहीं था, तो वह जो मंत्र की साधना कर रहा था, वह मंत्र का रटन करता रहा। वह चौबीस घंटे, जब भी उसे याद आता, तो रटन करता था। सामने एक आदमी बैठा था। अचानक रटन करते-करते उसे ऐसा लगा कि कहीं यह आदमी गिर न जाये। गाड़ी पहाड़ चढ़ रही थी और बस को धक्के लग रहे थे। उसे ऐसा खयाल आया, कहीं यह आदमी गिर न जाये। जैसे ही उसे खयाल आया, वह आदमी धड़ाम से गिर गया नीचे। वह थोड़ा चौंका और उसे लगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे सोचने से गिर गया हो! या सिर्फ संयोग है?

तो उसने दूसरे आदमी पर प्रयोग करके देखा। जैसे ही उसने सोचा कि यह गिर न जाये, वह दूसरा आदमी लुढ़क गया, तब वह बहुत घबड़ा गया। तब उसकी घबड़ाहट स्वाभाविक हो गई। और उसने कहा कि अब संयोग नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी उसे लगा कि यह भी हो सकता है कि संयोग हो, एक प्रयोग और करके देख लूं। तो उसने एक तीसरे आदमी पर, जो बिलकुल सधा-बधा बैठा था, जिसके गिरने की कोई संभावना नहीं थी, उसको सोचा। और वह आदमी भी गिर गया।

वह यात्रा में बीच से उतर कर भागा हुआ मेरे पास आया और उसने कहा कि यह तो बड़ा--अब मैं क्या करूं? अगर आदमी गिर सकता है तो बात साफ है कि कुछ और भी हो सकता है। कोई बीमार हो और मैं कह दूं कि ठीक हो जाये। तो वह आदमी, वह युवक मुझसे कहने लगा, यह तो जनता की बड़ी सेवा होगी। और इसमें कोई हर्ज तो नहीं। इससे तो दूसरों को लाभ होगा।

मैंने उससे पूछा कि जब ये तीन आदमी गिरे, तब तेरे भीतर क्या हुआ, वह तू मुझे कह। तुझे भीतर कैसा रस आया? उसने कहा कि लगा कि अब मैं कोई सिद्धि को उपलब्ध हो रहा हूं और अब दूर नहीं है रास्ता। रास्ता करीब आ गया मंजिल का। बस मैंने कहा, असली बात यह है। सेवा, और दूसरे को ठीक करने की तू चिंता मत कर। जब तक तू है, तब तक तू जो भी करेगा वह सेवा नहीं हो सकती; जिस दिन तू मिट जाये, उस दिन सेवा।

'मैं' के रहते कैसे सेवा होगी? 'मैं' तो सिर्फ शोषण कर सकता है सेवा नहीं कर सकता। 'मैं' सिर्फ चूस सकता है दूसरे को, दूसरे को सहारा नहीं दे सकता। सहारे के नाम पर भी चूसेगा।

तो जैसे-जैसे व्यक्ति साधना में लगता है, आखिरी घड़ियों में मन की सूक्ष्म-शक्तियां जागनी शुरू होती हैं, विभूति पैदा होती है। लेकिन वह विभूति सिद्धि नहीं है, वह मंजिल नहीं है। वह पड़ाव भी नहीं है। उसकी तरफ उपेक्षा से देखते हुए गुजर जाना। इसलिए पतंजलि ने विभूतिपाद लिखा--पूरा एक अध्याय, सिर्फ सावधानी के लिए।

दिया तले अँधेरा 

ओशो

शाश्वत सूत्र



मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भागा हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा। और उसने कहा कि अब देर मत करो, जल्दी चलो मेरे साथ। मेरी पत्नी बस, मरने के करीब है। स्टेशन आफिसर भी उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा, हुआ क्या है? उसने कहा कि हम समुद्र के तट पर थे। ज्वार भर रहा है, भरती हो रही है, तूफान तेज है। और मेरी पत्नी रेत में फंस गई है, बचाओ! जरा देर हुई कि मुश्किल हो जायेगा। ऑफिसर ने पूछा कि कितनी दूर तक रेत में चली गई है? कितनी उलझ गई है रेत में? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, पंजे तक। वह आदमी खड़ा था, वह बैठ गया। उसने कहा, मुझे पहले ही शक था। अगर पंजे तक उलझी है, तो अपने आप निकल आयेगी। इतने परेशान होने की जरूरत नहीं है, और न किसी को ले जाने की जरूरत है। नसरुद्दीन ने कहा, नहीं निकलेगी; देर मत करो, मैं कहता हूं। क्योंकि वह शीर्षासन कर रही है।

अब अगर शीर्षासन करते वक्त पंजे तक उलझ गये, तो फैसला है।

धार्मिक और तथाकथित धार्मिक में यही फर्क है। तथाकथित धार्मिक संसारी से उलटा है, वह शीर्षासन कर रहा है। तुम अगर पंजे तक उलझे हो, वह भी पंजे तक उलझा है। लेकिन ध्यान रखना, तुम शायद बच भी जाओ; उसका बचना मुश्किल है, वह शीर्षासन कर रहा है।

असली धार्मिक कौन है? असली धार्मिक वह है जिसने द्वंद्व छोड़ा। जो न तो मन के पक्ष में है, न मन के विपरीत है। जो न तो मन को भरने में लगा है, न मन को तोड़ने में। जो न तो मन की अपवित्र आकांक्षाओं को पूरा करने में उत्सुक है, और न मन की पवित्र आकांक्षाओं को पूरा करने में उत्सुक है; जो न तो धन के पीछे दौड़ रहा है और न परमात्मा के पीछे। जो दौड़ ही नहीं रहा है। क्योंकि सब दौड़ मन की है।

और मन इतना कुशल है, इतना चालाक है, और उसका गणित इतना जटिल है, कि तुम एक तरफ से हटे नहीं कि वह तत्क्षण तुम्हें दूसरा जाल बता देता है। तुम दौड़ते थे, पागल थे धन के पीछे; जब तुम ऊबने लगते हो, तब तुमसे वह कहता है कि धन से मिलेगा नहीं, त्याग से मिलता है। इसके पहले कि तुम उसके पंजे के बाहर हो जाओ, वह विपरीत पंजा आगे बढ़ा देता है। और तुम्हें भी ठीक लगता है; क्योंकि तुम तर्क से ही जीये हो कि जब इस दिशा में नहीं पाया तो शायद विपरीत दिशा में मिलेगा, तो इसको भी खोज करके देख लें।

लेकिन त्याग, भोग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। भोगी तो उलझे ही हैं, त्यागी और बुरी तरह उलझे हैं। वही संसार की रेत! लेकिन वे शीर्षासन करते हुए खड़े हैं। इधर तुम स्त्रियों के पीछे भागते थे, पुरुषों के पीछे भागते थे, इसके पहले कि तुम ऊबो, मन तुम्हें नया रस दे देगा। वह कहेगा, रस तो ब्रह्मचर्य में है। आनंद तो ब्रह्मचारी पाता है, व्यभिचारी को कभी आनंद मिला है?
फिर एक नया जाल शुरू हो रहा है। मन तुम्हें छूटने न देगा, विपरीत में रस को जगा देता है; यह उसकी तरकीब है। और जब तक तुम विपरीत में भटकोगे, तब तक तुम पहले अनुभव को पुनः भूल जाओगे। क्योंकि तुम्हारी स्मृति न के बराबर है। तुम्हें स्मरण की तो क्षमता ही नहीं है, वही अगर होती, तो तुम कभी के जाग गये होते।

तुमसे अगर कहा जाये कि तुम घड़ी भर भी होश रखो, तो नहीं रख पाते। घड़ी भर भी तुमसे कहा जाये, स्मरण-पूर्वक खड़े रहो, तुम नहीं खड़े रह पाते हो; हजार बातें तुम्हें आकर्षित कर लेती हैं। तुम छोटे बच्चों की तरह हो जो हर तितली के पीछे दौड़ जाता है, हर कंकड़-पत्थर को बीनने लगता है। हर आवाज उसे उत्सुक कर लेती है। जो सब दिशाओं में बहता रहता है। इसके पहले कि तुम ऊबो, मन तुम्हें नये जाल देगा; सावधानी रखना।

और सावधानी एक ही रखनी है। और वह यह सूत्र मैं कह देता हूं। यह सूत्र शाश्वत है; यह समस्त धर्म का सार है। सूत्र है: कि अगर तुमने भोग से न पाया हो, तो तुम उसके विपरीत से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने कामवासना से न पाया हो, तो तुम ब्रह्मचर्य से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने धन में न पाया हो, तो तुम निर्धनता से कभी न पा सकोगे। अगर तुमने दौड़-दौड़ कर संसार में नहीं पाया, तो तुम दौड़-दौड़ कर परमात्मा में भी न पा सकोगे।

दिया तले अँधेरा 

ओशो

मन का दीया, आशा के तेल से जलता है।



मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि जीवन भर के अनुभव का सार-निचोड़ तीन सिद्धांतों में मैंने निर्मित कर लिया। तो मैंने पूछा, कौन से हैं वे सिद्धांत? और उसने कहा कि तीन को भी अगर निचोड़ो तो बस एक ही बचता है। मैंने कहा, कहो।

तो उसने कहा, पहला सिद्धांत। लोग युद्ध पर जाते हैं। एक दूसरे को मारने में बड़ी झंझट उठाते हैं। बड़ा श्रम, बड़ी संपत्ति, बड़ी शक्ति का व्यय हत्या में होता है। जाने की बिलकुल जरूरत नहीं; थोड़ा सा धैर्य रखें, प्रकृति खुद ही सभी को मार डालती है। जो काम प्रकृति ही कर देगी, उसके लिए हम मेहनत क्यों उठायें? बस, जरा से धैर्य की जरूरत है, प्रकृति खुद ही मार डालेगी। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने की जरूरत क्या है? सभी मर गये होते, जरा सी प्रतीक्षा चाहिए थी।

मैंने पूछा, 'और दूसरा?'

उसने कहा, दूसरा: लोग, वृक्ष पर फल लगते हैं, पत्थर मारते हैं, डंडों से गिराते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, कभी फल तोड़ने में हाथ-पैर खुद के टूट जाते हैं; जरा धीरज रखें, फल पकेगा, फल अपने आप गिर कर जमीन पर आ जायेगा।

मैंने पूछा, 'तीसरा?'

उसने कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे भागते हैं, जीवन बरबाद करते हैं; जरा धीरज रखें, स्त्रियां उनके पीछे भागेंगी।

और उसने कहा कि तीनों का सार एक है; जरा धीरज रखें।

तुम शायद सोचते हो कि धार्मिक आदमी का लक्षण है 'जरा धीरज रखें'। नहीं, 'जरा धीरज' मन की तरकीब है। धार्मिक आदमी में न तो धैर्य होता है, न अधैर्य होता है; वह धीरज नहीं है। वह अधैर्य के विपरीत धैर्य को नहीं साधता। वहां धैर्य भी चला गया है, अधैर्य भी चला गया है; अब वहां सन्नाटा है, वहां दोनों प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं। वहां द्वंद्व चला गया है।

लेकिन सांसारिक आदमी धीरज साधता है, और धीरज मन का तेल है; उससे ही मन का दीया जलता है। मन कहता है, थोड़ा समय और। फल पके ही जाते हैं, थोड़ा समय और। दुनिया की सफलतायें तुम्हारे पीछे भागेंगी। थोड़ी देर और टिके रहो, जल्दी मत करो।

ऐसे ही इस आशा के सहारे तुम टिके रहे। सांसारिक आदमी तो मन से जीता ही है; धार्मिक आदमी, तथाकथित धार्मिक आदमी भी मन से ही जीता है। यात्रा भला उल्टी हो जाती हो, फर्क नहीं पड़ता। मौलिक आधार वही का वही रहता है।

सांसारिक आदमी क्या कर रहा है, इसे हम ठीक से समझ लें। वह मन को भरने की कोशिश कर रहा है। लेकिन ध्यान मन पर लगा है। ग्रामीण ने गांव के; समझ लिया कि मैं राजा हूं। और तर्क भी साफ है कि सभी लोग झुक-झुक कर नमस्कार कर रहे हैं। और नमस्कार मुझे ही की जा रही है यह मानने की सहज ही वृत्ति होती है। सांसारिक आदमी मन को भरने में लगा है।

फिर तथाकथित धार्मिक आदमी क्या कर रहा है? क्योंकि न सांसारिक के जीवन में आनंद की वर्षा दिखाई पड़ती है; उस आनंद की, जिसको कबीर कहते हैं कि आकाश से अमृत बरस रहा है। उस आनंद की, जिससे मीरा नाच उठती है कि सारा जीवन नृत्य हो जाता है। उस आनंद की, जिससे कृष्ण की बांसुरी बजती है, और आनंद का स्वर पैदा होता है। नहीं, वैसी आनंद की घड़ी न तो संसारी में दिखाई पड़ती है, और न तुम्हारे तथाकथित संन्यासी में दिखाई पड़ती है; दोनों उदास, थके और हारे मालूम पड़ते हैं।

संसारी मन को भरने में लगा है; संन्यासी क्या कर रहा है? संन्यासी मन को निखारने में लगा है, शुद्ध करने में लगा है। और ध्यान रहे, न तो मन को भरा जा सकता और न मन को निखारा जा सकता, शुद्ध किया जा सकता है; मन का स्वभाव दुष्पूर है। और ऐसे ही मन का स्वभाव, अपवित्र है। वह पवित्र तो हो नहीं सकता। जहर को तुम कैसे शुद्ध करोगे? और अगर कर लिया तो और जहरीला होगा। जहर की शुद्धि का अर्थ होगा--और जहरीला। जहर शुद्ध होकर अमृत न हो जायेगा, क्योंकि शुद्ध होने से तो उसकी प्रकृति और प्रगट होगी।

तो यह एक बहुत अनूठी बात है कि सांसारिक आदमी को मन की प्रकृति का, उसके जहर का पूरा अनुभव नहीं होता; वह पूरा अनुभव तो संन्यासी को होता है, क्योंकि वह शुद्ध करता है। और शुद्ध कर-कर के पाता है कि यह मन तो भयंकर जहरीला है। इतना जहर तो संसार में भी नहीं था। क्योंकि और हजार चीजें मिली थीं, वहां तो सब चीजें मिश्रित थीं। वहां जहर भी शुद्ध नहीं बिक रहा था, वहां सभी चीजें मिली-जुली थीं। लेकिन जैसे-जैसे साफ होता है मन, वैसे-वैसे और जहरीला हो जाता है। इसलिये अगर संन्यासियों ने मन के खिलाफ बहुत लिखा है, तो आश्चर्य नहीं है। उन्होंने मन को उसकी शुद्धता में जाना है।

दिया तले अँधेरा 

ओशो 

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