एक युवक मेरे पास आया। सच में हिम्मतवर युवक
है। और बड़े साहस से उसने ध्यान के प्रयोग किए हैं। वह मेरे पास आया। वह एक यात्रा पर
गया था और बस में बैठा था। कुछ करने को नहीं था, तो वह जो मंत्र की साधना कर रहा था, वह मंत्र का रटन करता रहा। वह चौबीस घंटे, जब भी
उसे याद आता, तो रटन करता था। सामने एक आदमी बैठा था। अचानक
रटन करते-करते उसे ऐसा लगा कि कहीं यह आदमी गिर न जाये। गाड़ी पहाड़ चढ़ रही थी और बस
को धक्के लग रहे थे। उसे ऐसा खयाल आया, कहीं यह आदमी गिर न
जाये। जैसे ही उसे खयाल आया, वह आदमी धड़ाम से गिर गया नीचे।
वह थोड़ा चौंका और उसे लगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे सोचने
से गिर गया हो! या सिर्फ संयोग है?
तो उसने दूसरे आदमी पर प्रयोग करके देखा। जैसे
ही उसने सोचा कि यह गिर न जाये,
वह दूसरा आदमी लुढ़क गया, तब वह बहुत घबड़ा
गया। तब उसकी घबड़ाहट स्वाभाविक हो गई। और उसने कहा कि अब संयोग नहीं कहा जा सकता। लेकिन
फिर भी उसे लगा कि यह भी हो सकता है कि संयोग हो, एक प्रयोग
और करके देख लूं। तो उसने एक तीसरे आदमी पर, जो बिलकुल सधा-बधा
बैठा था, जिसके गिरने की कोई संभावना नहीं थी, उसको सोचा। और वह आदमी भी गिर गया।
वह यात्रा में बीच से उतर कर भागा हुआ मेरे पास
आया और उसने कहा कि यह तो बड़ा--अब मैं क्या करूं? अगर आदमी गिर सकता है तो बात साफ है कि कुछ और
भी हो सकता है। कोई बीमार हो और मैं कह दूं कि ठीक हो जाये। तो वह आदमी, वह युवक मुझसे कहने लगा, यह तो जनता की बड़ी सेवा
होगी। और इसमें कोई हर्ज तो नहीं। इससे तो दूसरों को लाभ होगा।
मैंने उससे पूछा कि जब ये तीन आदमी गिरे, तब तेरे भीतर क्या हुआ,
वह तू मुझे कह। तुझे भीतर कैसा रस आया? उसने
कहा कि लगा कि अब मैं कोई सिद्धि को उपलब्ध हो रहा हूं और अब दूर नहीं है रास्ता। रास्ता
करीब आ गया मंजिल का। बस मैंने कहा, असली बात यह है। सेवा,
और दूसरे को ठीक करने की तू चिंता मत कर। जब तक तू है, तब तक तू जो भी करेगा वह सेवा नहीं हो सकती; जिस
दिन तू मिट जाये, उस दिन सेवा।
'मैं' के रहते कैसे सेवा होगी? 'मैं' तो सिर्फ शोषण कर सकता है सेवा नहीं कर सकता।
'मैं' सिर्फ चूस सकता है दूसरे को,
दूसरे को सहारा नहीं दे सकता। सहारे के नाम पर भी चूसेगा।
तो जैसे-जैसे व्यक्ति साधना में लगता है, आखिरी घड़ियों में मन की सूक्ष्म-शक्तियां
जागनी शुरू होती हैं, विभूति पैदा होती है। लेकिन वह विभूति
सिद्धि नहीं है, वह मंजिल नहीं है। वह पड़ाव भी नहीं है। उसकी
तरफ उपेक्षा से देखते हुए गुजर जाना। इसलिए पतंजलि ने विभूतिपाद लिखा--पूरा एक अध्याय,
सिर्फ सावधानी के लिए।
दिया तले अँधेरा
ओशो
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