मुझे स्मरण आता है कि एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से उसके एक पड़ोसी ने कहा
कि मुझे कुछ घंटों के लिए तुम्हारा घोड़ा चाहिए। मुल्ला ने कहा कि मैं तो
तुम्हें खुशी से अपना घोड़ा दे देता, लेकिन मेरी पत्नी घोड़े को लेकर कहीं गई है और वह दिन भर
बाहर ही रहेगी। ठीक उसी समय अस्तबल से घोड़े की हिनहिनाहट सुनाई पड़ी, और
पड़ोसी ने मुल्ला की तरफ देखा। मुल्ला ने कहा: अच्छा, तुम मुझ पर विश्वास
करते हो या घोड़े पर? और घोड़ा तो झूठ बोलने के लिए बदनाम ही है। तुम किस
पर भरोसा करते हो?’
हम अपने प्रक्षेपणों के द्वारा अपने चारों ओर एक झूठा संसार निर्मित कर
लेते हैं। और अगर सत्य स्वयं भी सामने खड़ा होता है और अस्तबल से घोड़ा
हिनहिनाता है तो भी हम पूछते हैं : ‘किसका विश्वास करोगे?’ हम सदा अपना
भरोसा करते हैं, सत्य का नहीं, जो सदा सदा उभरकर सामने आता रहता है। सत्य
प्रतिपल प्रकट है, लेकिन हम अपनी भ्रांतियों को जबरदस्ती उस पर थोपते रहते
हैं।
यही कारण है कि प्रत्येक आदमी को अंततः विषाद का, निराशा का शिकार होना
पड़ता है। इसका कारण सत्य नहीं, हमारा प्रक्षेपण है, हमारा आरोपण है। अंत
में प्रत्येक मनुष्य को उदासी और निराशा ही हाथ लगती है; उसे लगता है कि
समूचा जीवन व्यर्थ हो गया। लेकिन अब तुम कुछ नहीं कर सकते; अब यह अनकिया
नहीं हो सकता। समय अब तुम्हारे पास नहीं है। समय चला गया और मृत्यु निकट
है। तुम्हारा भ्रम भंग तो हुआ, लेकिन अवसर भी जाता रहा।
क्यों हरेक आदमी को अंत में हताशा ही हाथ लगती है? न केवल उन्हें ही जो
जीवन में असफल होते हैं, बल्कि जो सफल होते हैं उन्हें भी इसी अनुभव से
गुजरना पड़ता है। यह तो ठीक है कि असफल लोगों को लगता है कि धोखा हुआ, मगर
सफल लोगों को भी ऐसा ही लगता है। नेपोलियन और हिटलर और सिकंदर का भ्रम भी
टूटता है; उन्हें भी लगता है कि सारा जीवन व्यर्थ गया। क्यों? इसका कारण
सत्य है या इसका कारण तुम्हारा वह सपना है जो तुम प्रक्षेपित कर रहे थे? और
फिर तुम स्वप्न को नहीं प्रक्षेपित कर पाए और अंतत: सत्य प्रकट हो गया। और
आखिर में सत्य जीत जाता है और तुम हार जाते हो सत्यमेव जयते। तुम तभी जीत
सकते हो यदि तुम प्रक्षेपित न करो।
इसलिए दूसरी बात स्मरण रखो, चीजों को ठीक वैसी देखो जैसी वे हैं।
प्रक्षेपण मत करो; व्याख्या मत करो, चीजों पर अपने मन को आरोपित मत करो।
सत्य को, वह जो भी हो, जैसा भी हो, प्रकट होने दो। यह सदा शुभ है। और
तुम्हारे सपने कितने ही सुंदर हों, वे अशुभ हैं। क्योंकि सपनों के साथ तुम
मोहभंग की यात्रा पर निकले हो, जिसमें निराशा अनिवार्य है। और यह मोह
भंग जितना शीघ्र हो उतना बेहतर है।
लेकिन जैसे ही एक भ्रम टूटता है, तुम तुरंत उसकी जगह दूसरा भ्रम निर्मित
कर लेते हो।’ उनके बीच अंतराल आने दो; दो भ्रमों के बीच अंतराल आने दो;
ताकि सत्य देखा जा सके। यह कठिन है; सत्य को सीधे—सीधे देखना कठिन है। हो
सकता है, वह तुम्हारी कामनाओं के अनुकूल न हो। सत्य के लिए जरूरी नहीं है
कि वह तुम्हारी कामनाओं के अनुकूल हो। लेकिन तब तुम्हें सत्य के साथ रहना
होगा, सत्य में रहना होगा। और तुम सत्य में ही हो। तो अपने को धोखा देने की
बजाय सत्य का सीधा साक्षात्कार, सत्य को सीधे सीधे देख लेना बेहतर है।
तुम्हें बोध नहीं है कि तुम किस तरह प्रक्षेपण करते रहते हो। कोई कुछ
कहता है और तुम कुछ का कुछ समझते हो। और तुम अपनी समझ के आधार पर चीजों को
देखते हो और उनसे एक ताश का महल निर्मित कर लेते हो। लेकिन तुमने जो समझा
वह कभी नहीं कहा गया था; और जो कहा गया था उसका अर्थ कुछ और ही था।
सदा उसे देखो जो है। जल्दबाजी मत करो। गलत समझने की बजाय न समझना कहीं
बेहतर है। अपने को ज्ञानी समझने की बजाय जान बूझ कर अज्ञानी बने रहना बेहतर
है। अपने संबंधों को देखो: पति, पत्नी, मित्र, शिक्षक, मालिक, नौकर सबको
देखो। प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से सोच रहा है; प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की
व्याख्या कर रहा है। उनमें कहीं कोई मिलन नहीं है, कहीं कोई संवाद नहीं
है। वे लड़ रहे हैं, वे निरंतर संघर्ष में हैं। और यह संघर्ष दो व्यक्तियों
के बीच नहीं है; यह संघर्ष दो झूठी प्रतिमाओं के बीच है।
तंत्र सूत्र
ओशो
No comments:
Post a Comment