जीवन में एक अनिवार्य संतुलन है। जितनी यहां बुराई है, उतनी ही
यहां भलाई है। जितना यहां अंधेरा है, उतना ही यहां प्रकाश है। जितना यहां
जीवन है, उतनी ही यहां मृत्यु है। दोनों में से कोई भी कम ज्यादा नहीं हो
सकते। दोनों की बराबर मात्रा चाहिए, तो ही जीवन चल पाता है। वे गाड़ी के दो
चाक हैं
संसार चल रहा है, चलता रहा है, चलता रहेगा। उसके दोनों चाक बराबर हैं,
इसीलिए। लेकिन फिर भी प्रश्न सार्थक है। क्योंकि साधारणत: देखने पर हमें
यही दिखाई पड़ता है कि असुरों से तो पृथ्वी भरी है; देव कहां हैं?
समझने की कोशिश करें।
हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। पृथ्वी असुरों से भरी दिखाई पड़ती
है, वह हमारी अपनी आसुरी वृत्ति का दर्शन है। देव को तो हम पहचान भी नहीं
सकते। वह दिखाई भी पड़े, मौजूद भी हो, तो भी हम उसे पहचान नहीं सकते।
क्योंकि जब तक दिव्यता की थोड़ी झलक हमारे भीतर न जगी हो, तब तक दूसरे के
भीतर जागे हुए देव से हमारा कोई संबंध निर्मित नहीं होता।
जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारी ही आंखों का फैलाव है, वह हमारी दृष्टि
का ही फैलाव है। हमें वह नहीं दिखाई पड़ता जो है, बल्कि वही दिखाई पड़ता है
जो हम हैं।
दैवी संपदा से भरे व्यक्ति को इस जगत में असुर कम और देवता ज्यादा दिखाई
पड़ने लगते हैं। संत को बुरा आदमी दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। हमें जो बुरा
दिखाई पड़ता है, संत को वही .उसकी व्याख्या बदल जाती है। और व्याख्या के
अनुसार जो हमें दिखाई पड़ता है, उसका रूप बदल जाता है।
लेकिन संत को दिखाई पड़ने लगता है, सभी भले हैं। असंत को दिखाई पड़ता है,
सभी बुरे हैं। दोनों ही बातें अधूरी हैं। और जब आप परिपूर्ण साक्षी भाव को
उपलब्ध होते हैं, जहां न तो आप अपने को जोड़ते हैं साधुता से, न जोड़ते हैं
असाधुता से, जहां बुरे और भले दोनों से आप पृथक हो जाते हैं, उस दिन आपको
दिखाई पड़ता है कि जगत में दोनों बराबर हैं। और बराबर हुए बिना जगत चल नहीं
सकता, क्षणभर भी नहीं जी सकता।
तो यदि हमें दिखाई पड़ती है पृथ्वी असुरों से भरी, तो इसका केवल एक ही
अर्थ लेना कि हम आसुरी संपदा में जी रहे हैं। इसका दूसरा कोई और अर्थ नहीं
है। पृथ्वी से इसका कोई संबंध नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात भांग पी
ली। भाग के नशे में जमीन घूमती हुई दिखाई पड़ने लगी। तो सुबह उठकर जब वह
होश में आ गया, उसने कहा, मैं समझ गया। जिस आदमी ने यह सिद्ध किया कि
पृथ्वी घूमती है, वह भंगेड़ी रहा होगा!
हमारा अनुभव ही हम फैलाते हैं, दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। जो हमारे
भीतर है, उसके माध्यम से ही हम दूसरे को देखते हैं। तो दूसरे की वास्तविक
स्थिति हमें दिखाई नहीं पड़ती, हमारा ही मन उस पर छा जाता है, हमारी छाया ही
उसे आच्छादित कर लेती है। फिर जो हम देखते हैं, वह अपने ही मन का फैलाव
है। दूसरा व्यक्ति जैसे परदा बन जाता है। हमारा ही चित्त उस परदे पर हमें
दिखाई पड़ता है। दूसरे में हम स्वयं को ही देखते हैं। दूसरा जैसे दर्पण है।
तो अगर लगता हो कि सारी पृथ्वी असुरों से भरी है, तो जानना कि आपका
चित्त आसुरी संपदा से भरा है। इसके अतिरिक्त यह बात किसी और चीज का लक्षण
नहीं है। इससे पृथ्वी के संबंध में कोई खबर नहीं मिलती, सिर्फ आपके संबंध
में खबर मिलती है; आपकी आंखों के संबंध में खबर मिलती है, आंखों के पीछे
छिपे मन के संबंध में खबर मिलती है।
गीता दर्शन
ओशो
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