अनंत अनंत काल के बीत जाने पर कोई सदगुरु होता है. सिद्ध तो बहुत होते है, सदगुरु बहुत थोड़े। सिद्ध वह जिसने जान लिया लेकिन बाँट न सका; सदगुरु वह, जिसने पाया और बांटा। सिद्ध स्वयं तो लीन हो जाता है परमात्मा के विराट सागर में; मगर वह जो मनुष्यता की भटकती हुई भीड़ है- अज्ञान में, अंधकार में, अन्धविश्वास मैं, उसे नहीं तार पाता। सिद्ध तो ऐसे है जैसे छोटी सी डोंगी मछुए की, बस एक आदमी उसमे बैठ सकता है. सिद्ध का यान हीनयान है; उस में दो की सवारी नहीं हो सकती, वह अकेला ही जाता है. सदगुरु का यान महायान है; वह बड़ी नाव है; उसमे बहुत समां जाते है; जिनमें भी साहस है, वे सब उसमे समा जाते है. एक सदगुरु अनंतो के लिए द्वार बन जाता है.
गुरु प्रताप साध की संगति
ओशो
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