हमने ही बांधा है अपने को, तो बंधन में जरूर कोई रस होगा; बंधन नीरस नहीं हो सकता। चाहे रस आता ही क्यों न हो! चाहे रस प्रतीत ही क्यों न होता हो, वस्तुत: न ही हो, फिर भी होगा स्वभवत ही सही, चाहे मरीचिका दिखाई पड़ती हो मरुस्थल में, न हो वहां जल, लेकिन दिखाई पड़ता है। और प्यासे को दिखाई पड़ना भी काफी है। और प्यासे को यह निर्णय करने की सुविधा नहीं है कि वह तय करे कि जो जल दूर दिखाई पड़ता है वह है भी या नहीं? दौड़ेगा।
यह सारी दौड़ सुख-दुख के आस-पास है। इसलिए सुख-दुख के तत्व में भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है। शायद सुख-दुख की संभावना ही बंधन का कारण है।
सुख क्या है? और दुख क्या है? ऊपर से देखने पर लगता है, दोनों बड़े विपरीत हैं; एक-दूसरे के बिलकुल दुश्मन हैं। ऐसा है नहीं। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए एक मजे की घटना घटती है लेकिन हम खयाल नहीं कर पाते कि जिसे हम आज सुख कहते हैं वही कभी कल दुख हो जाता है; और जिसे आज हम दुख कहते हैं वह कल सुख हो सकता है। कल तो बहुत दूर है, जिसे हम सुख कहते हैं, वह क्षण भर बाद दुख हो सकता है। यह भी हो सकता है कि जब हम कह रहे हैं यह सुख है, तभी वह दुख हो गया हो।
जो गहन खोज करते हैं मनुष्य के मन की, वे तो यह कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति कहता है, यह सुख है, तभी वह दुख हो गया होता है। क्योंकि जब तक वह सुख होता है, तब तक यह कहने की भी सुविधा नहीं मिलती कि यह सुख है। वह जब क्षीण होने लगता है तभी।
सुख-दुख के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि वे विपरीत नहीं हैं; वे एक-दूसरे में रूपातरित होते रहते हैं, लहर की भांति हैं–कभी इस किनारे, कभी उस किनारे। हम सब जानते हैं; हमने अपने सुखों को दुखों में परिवर्तित होते देखा है। लेकिन देख कर भी हमने निष्कर्ष नहीं लिए। शायद निष्कर्ष लेने के लिए हम अपने मन को अवसर नही देते हैं। एक सुख दुख बन जाता है, तब हम तत्काल दूसरे सुख की तालाश में चल पड़ते हैं। रुकते नहीं, ठहर कर देखते नहीं कि जिसे कल सुख जाना था, वह आज दुख हो गया, तो ऐसा तो नहीं है कि हम जिसे भी सुख जानेंगे, वह फिर दुख हो जाएगा? ऐसा मन कहता है कि यह हो गया दुख, कोई बात नहीं, कहीं कोई भूल हो गई, यह दुख रहा ही होगा, हमने भ्रांति से सुख समझ लिया था।
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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