संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे
हैं। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी हैं, क्योंकि जब तक तुम संसार से
चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे
सिर में है; और उसका कारण तुम हो, बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। और लोग
सारा संसार उठाए हैं; और फिर वे दुखी होते हैं। और दुख के इसी अनुभव से
विपरीत कामना का उदय होता है, और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते हैं।
पहले वे धन के पीछे भाग रहे थे, अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे हैं। पहले
वे इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ
पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे हैं। लेकिन भाग दौड़ जारी है। और भाग दौड़ ही
समस्या है, विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या
चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है; तुम चाहते हो, यह समस्या है।
और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते
हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ की चाह करते
हो, और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने
‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क-ख-ग
तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो चाहता है, जो कामना करता है। और वह वही का
वही रहता है।
तुम बंधन चाहते हो और फिर उससे निराश हो जाते हो, ऊब जाते हो। और तब तुम
मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और
कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। चाह ही बंधन है;
इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो मोक्ष है;
चाह का छूट जाना ही मोक्ष है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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