भाषा उसे कभी नहीं कहती है जो है। अगर तुम कहते हो कि मैंने आंखें खोलीं
तो झूठ कह रहे हो। और अगर तुम कहते हो कि आंखें अपने आप खुलीं तो भी झूठ
है। क्योंकि आंखें अंश हैं, वे अपने आप नहीं खुल सकतीं। उनके खुलने में
सारा शरीर सम्मिलित है। लेकिन हम जो कुछ कहते हैं वह ऐसा ही है।
अगर तुम भारत में आदिवासी समाजों में जाओ और यहां अनेक आदिवासी कबीले
है तो पाओगे कि उनकी भाषा संरचना बहुत भिन्न है। उनकी भाषा संरचना में
स्वप्न देखने की गुंजाइश नहीं है। अगर वर्षा होती है तो हम कहते हैं :
‘वर्षा हो रही है।’ आदिवासी पूछते हैं : ‘हो रही है का क्या अर्थ? हो रही
है कहने का क्या मतलब?’ उनके पास एक ही शब्द है, वर्षा। वर्षा हो रही है,
कहने की क्या जरूरत है? वर्षा कहना काफी है। वर्षा यथार्थ है। लेकिन हम
उसमें कुछ न कुछ जोडते चले जाते हैं। और हम जितने शब्द जोड़ते हैं उतने ही
भटक जाते हैं, सत्य से उतने ही दूर हो जाते हैं।
बुद्ध कहा करते थे कि जब तुम कहते हो कि आदमी चल रहा है तो उसका क्या
अर्थ है? आदमी कहा है? केवल चलना है। आदमी से तुम्हारा क्या मतलब? जब हम
कहते है कि आदमी चल रहा है तो ऐसा लगता है कि आदमी जैसा कुछ है और चलने
जैसा कुछ है, और इन दो चीजों को जोड़ दिया गया है। बुद्ध कहते हैं, केवल
चलना है।
जब तुम कहते हो कि नदी बह रही है तो तुम्हारा क्या मतलब है? केवल बहना
है, और वह बहना ही नदी है। वैसे ही चलना आदमी है, देखना आदमी है, खड़ा होना
और बैठना आदमी है। अगर तुम इन चीजों को अलग कर दो चलने, बैठने, खड़े होने,
सोचने और सपने देखने को अलग कर दो तो क्या पीछे आदमी रह जाएगा? नहीं, पीछे
कोई आदमी नहीं बचेगा। लेकिन भाषा एक अलग ही संसार निर्मित कर देती है। और
सतत शब्दों में भटककर हम भटकते ही चले जाते हैं।
तो पहली बात यह स्मरण रखने की है कि नाहक शब्दों के झमेले में न पड़ा
जाए। जब जरूरत हो, तो तुम शब्दों का उपयोग कर सकते हो, लेकिन जब जरूरत न हो
तो खाली रहो, चुप रहो, निःशब्द रहो, मौन रहो, शांत रहो। चीजों को निरंतर
शब्द देते रहने की जरूरत नहीं है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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