यूनान में एक पुरानी कहानी है। यूनान में सोफिस्ट संप्रदाय हुआ। यह
सोफिस्ट संप्रदाय शुद्ध तर्कवादियों का संप्रदाय था। इनकी श्रद्धा तर्क में
थी। ये कहते थे कि तर्क सब कुछ है। और ये यह भी कहते थे कि सत्य जैसी कोई
चीज नहीं है। सत्य तो तुम्हारी मान्यता है। अपनी मान्यता को सुदृढ़ करने के
लिए तुम तर्क का जाल खड़ा कर लो। तर्क की बैसाखियां लगा दो तो सत्य खड़ा हो
जाता है। हालांकि सत्य जैसी कोई चीज नहीं। सत्य है ही नहीं, सब तर्क ही
तर्क है। इसलिए हर सत्य के लिए, जिसको तुम सत्य मानना चाहते हो, तर्क जुटाए
जा सकते हैं।
एक बहुत बड़ा सोफिस्ट अपने शिष्यों को. . . .उसे इतना भरोसा था अपने तर्क
पर, आधी फीस लेता था शिक्षण देते समय और कहता था आधी तब लूंगा जब तुम अपना
पहला विवाद जीतोगे। और स्वभावतः उसके सारे शिष्य विवाद जीतते थे। इसलिए
आधी फीस पीछे लेता था। मगर एक महाकंजूस भरती हुआ उसके स्कूल में। उसने आधी
फीस दी, तर्क सीखा, फिर किसी से विवाद किया ही नहीं।
महीने बीते, गुरु बेचैन। वर्ष बीतने लगे, गुरु ने कई बार पूछा कि भई, विवाद किसी से नहीं किया?
उसने कहा : मैं विवाद कभी करूंगा ही नहीं। वह आधी फीस की झंझट कौन ले!
तुम मुझसे आधी फीस न ले सकोगे आखिर मैं भी तुम्हारा ही शिष्य हूं।
लेकिन गुरु ऐसे तो नहीं छोड़ दे सकता था। गुरु ने अदालत में मुकदमा किया
कि इसने मुझे आधी फीस नहीं चुकाई है।
गुरु का हिसाब साफ था। गुरु का हिसाब
यह था कि अब तो इसे अदालत में विवाद करना ही पड़ेगा मुझसे, अगर मैं विवाद
जीता तो आधी फीस वहीं रखवा लूंगा क्योंकि अदालत कहेगी कि आधी फीस दो। और
अगर मैं विवाद हारा तो अदालत के बाहर कहूंगा कि बच्चू कहां जा रहे हो,
विवाद तुम जीत गए, आधी फीस! चित भी मेरी पट भी मेरी।
मगर शिष्य भी तो आखिर उसी का शिष्य था। उसने कहा : कोई फिक्र नहीं। अगर
अदालत में हारा तो मुझे पता है कि वह बाहर आकर फीस मांगेगा कि तुम जीत गए।
तो मैं अदालत से निवेदन करूंगा कि मैं अदालत में जीता हूं इसलिए अब फीस
कैसे चुका सकता हूं? क्योंकि यह तो अदालत का अपमान होगा। और अगर अदालत में
मैं हार गया तब तो कोई सवाल ही नहीं। बाहर आकर कहूंगा अदालत में भी हार
गया, पहला विवाद भी हार गया, अब कैसी फीस? जब गुरु को यह पता चला कि. . .
.तो उसने मुकदमा खींच लिया क्योंकि यह तो . . . सेर को सवा सेर मिल गया।
तर्क का कोई अपना पक्ष नहीं है। तर्क इस अर्थ में निष्पक्ष है। वही तर्क
ईश्वर को सिद्ध करता है, वही तर्क ईश्वर को असिद्ध करता है। और संदेह तर्क
में जीता है।
लेकिन एक दिन अगर तुम संदेह में जीते ही रहे, जीते ही रहे,
तो तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि तुम तर्क के रेगिस्तान में भटक गए हो,
जहां एक भी मरूद्यान नहीं न वृक्ष की छाया है कोई, न दूब की हरियाली है
कोई, न पानी के झरने हैं, न पानी के झरनों का संगीत है तुम एक सूखे
मरुस्थल में भटक गए हो। तर्क बिल्कुल सूखा मरुस्थल है। वहां घास भी नहीं
उगती। तर्क में कोई चीज नहीं उगती। तर्क में तो उगी हुई चीजें हों तो भी मर
जाती हैं। तर्क तो जहर है।
मगर यह अनुभव कैसे आएगा? यह तुम संदेह में चलोगे तो ही अनुभव आएगा। और
एक दिन जब तुम संदेह में चलते चलते संदेह से थक जाते हो, संदेह से ऊब जाते
हो, संदेह की व्यर्थता देख लेते हो, संदेह की निस्सारता अनुभव कर लेते
हो तब तुम्हारे मन में एक नया प्रश्न उठता है कि मैं अनुभव करके देखूं।
विचार करके बहुत देखा, कुछ पाया नहीं, हाथ कुछ लगा नहीं, खाली का खाली हूं,
अनुभव करके देखूं, जीवन निकला जा रहा है।
गुरुप्रताप साध की संगती
ओशो
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