इस तरह के असंभव आदर्श मत बना लेना कि बच्चों के साथ समग्र प्रेम नहीं
हो रहा है। हो ही नहीं सकता। और अच्छा है कि नहीं हो रहा है। क्यों?
क्योंकि अगर मां बच्चे को बहुत प्रेम करे, अतिशय प्रेम करे, तो भी खतरा है।
इसलिए प्रकृति ने बड़ा इंतजाम किया हुआ है। अगर मां अपने बेटे को अतिशय
प्रेम करे इतना प्रेम करे कि बेटे का मन मां के प्रेम से भर जाये, तो यह
बेटा फिर किसी और स्त्री को प्रेम न कर सकेगा। जरूरत ही न रही, प्रयोजन ही न
रहा; मां ने ही इसका मन भर दिया! मगर यह तो खतरा हो गया। इस बच्चे का जीवन
तो उलझ गया। इस बच्चे का जीवन किसी मां के प्रेम से ही समाप्त हो जाये, तो
इस बच्चे के जीवन में अपना प्रेम कभी पैदा ही नहीं होगा।
इसलिए तुम देखते हो, मां जितना बच्चे को प्रेम करती है, बच्चा उतना
प्रेम मां को नहीं कर सकता। यह स्वाभाविक है, क्योंकि बच्चे को किसी और को
प्रेम करना है। आगे यात्रा जानी है जीवन की, पीछे नहीं जानी है। इसलिए कोई
मां बाप यह अपेक्षा न करें कि हम जितना प्रेम बच्चों को करते हैं, उतना ही
बच्चे हमें करें। अगर उतना ही प्रेम बच्चे तुम्हें करेंगे तो फिर अपने
बच्चों को क्या करेंगे? तुम अपने बच्चों को प्रेम कर रहे हो, कभी तुमने
खयाल किया है कि इतना प्रेम तुमने अपने मां बाप को किया था? तब तुम्हें समझ
में आ जायेगी बात।
वीणा अपने बच्चों को प्रेम कर रही, इतना प्रेम कभी अपने
मां बाप को किया था? इतना प्रेम? लेकिन तुम्हारे मां बाप ने इतना ही प्रेम
तुम्हें किया था। यह तो गंगा आगे बहेगी…। मां बाप बच्चों को करेंगे, बच्चे
अपने बच्चों को करेंगे। उनके बच्चे उनके बच्चों को करेंगे। ऐसे जीवन आगे
जायेगा। नहीं तो पीछे की तरफ जीवन जाने लगे तो घातक हो जायेगा।
कभी कभी ऐसी रुग्ण दशा हो जाती है। मां इतना प्रेम करती है बेटे को कि
बेटा अपराध अनुभव करने लगता है; किसी और स्त्री के प्रेम में पड़ना मतलब मा
के साथ गद्दारी है। ऐसी माताएं हैं जो समझती हैं कि गद्दारी है। इसलिए तो
सास और बहू में कलह बनी रहती है। सास बहू की कलह सारी दुनिया में चलती है।
उस कलह के पीछे बड़े कारण हैं। वह सामान्य मामला नहीं है। वह किसी एक स्त्री
का मामला नहीं है, वह सारी सास और बहुओं का मामला है।
क्यों? क्योंकि सास ने अपने बेटे को प्रेम किया था। इतना प्रेम किया था,
और आज यह बेटा गद्दार हो गया। आज यह उसकी नहीं सुनता; एक अजनबी औरत की
सुनता है। मां जिस बेटे को बनाने में पच्चीस साल लगाती है, बुद्धिमान बनाने
में पच्चीस साल, उसको कोई स्त्री पांच मिनट में बुद्ध बना देती है। अब मां
को चोट न लगे तो और क्या हो? और ये सज्जन चले… ये अपनी पत्नी की सुनते हैं
अब। अगर मां और पत्नी के बीच विरोध हो तो ये पत्नी की सुनेंगे। पत्नी की
सुननी भी चाहिए। क्योंकि इसी तरह जीवन आगे जायेगा। इसमें कुछ अनहोना नहीं
हो रहा है।
लेकिन मां की अपेक्षा गलत है, मां की आकांक्षा गलत है। मां बच्चे को
बुरी तरह घेर लेना चाहती है। कुछ बच्चे घिर जाते हैं। जो बच्चे अपनी मां के
प्रति बहुत प्रेम से घिर जाते हैं, वे किसी स्त्री को प्रेम नहीं कर पाते
हैं। उनका जीवन बड़ा उदास हो जाता है। और भी कई तरह के उपद्रव उनके जीवन में
होंगे। अगर वे किसी स्त्री के प्रेम में किसी तरह अपने को डाल भी देंगे तो
भी उनकी मां सदा बीच में खड़ी रहेगी। और वे सदा तौलते रहेंगे कि यह स्त्री
उनकी मां के साथ मेल खाती है या नहीं। कौन स्त्री उनकी मां के साथ मेल
खायेगी? उनकी मां जैसी और कोई स्त्री दुनिया में है भी नहीं; हो भी नहीं
सकती। बस जहां—जहां मां से कम पड़ेगी, भिन्न पडेगी, वहीं गलत हो जायेगी। मां
जैसा ही भोजन पकना चाहिए। मां जैसे ही कपड़े बनाए जाने चाहिए। मां जैसा ही
घर सजाया जाना चाहिए। यह कौन स्त्री करेगी, कैसे करेगी? और ये अपेक्षाएं
पूरी नहीं होतीं। ये भीतरी अपेक्षाएं हैं। तो फिर कलह और संघर्ष…।
नहीं, बच्चों को उतना ही प्रेम देना जितना सहज स्वाभाविक है। समग्रता की
व्यर्थ आकांक्षा मत करो। स्वाभाविक का भाव रखो, समग्र का नहीं। बस
स्वाभाविक जितना है, उतना प्रेम उचित है। बच्चों की चिंता करो। उनके
स्वास्थ्य की फिक्र करो। उनके भविष्य की फिक्र करो। वे जीवन में अपने पैरों
पर जल्दी खडे हो जायें, अपनी यात्रा पर निकल जायें, इसकी फिक्र करो।
और तुम्हारी फिक्र इतनी ज्यादा नहीं होनी चाहिए कि वे कमजोर रह जायें।
क्योंकि अतिशय फिक्र कमजोर कर देगी उनको। जैसे कोई मां अपने बेटे का हाथ
पकड़ कर चलाती ही रहे, चलाती ही रहे, उसे चलने ही न दे कभी अपने पैरों के
बल..?
अब यह तो खतरनाक मामला हो गया! अगर गरीबों के बेटे चलते हैं। और अगर मां इतनी अमीर है कि अपने बेटे को चलाने की कोई जरूरत नहीं, नौकर उसे उठा कर ले जा सकते हैं स्ट्रेचर पर, तो यह तो खतरनाक हो गया। यह तो अतिशयोक्ति हो गयी। लेकिन बहुतसी माताएं ऐसी अतिशयोक्ति कर लेती हैं। हम अपनी मूर्च्छा में बहुतसी अतिशयोक्तिया करते हैं।
नहीं, स्वाभाविक रहो। समग्र की कोई बात मत उठाओ। समग्र प्रेम तो होगा परमात्मा से। उसकी दिशा में वीणा, गति शुरू हो गयी है। वही तो मस्ती आ रही है। वही तो झलक आ रही है। लेकिन मेरी बातों का अर्थ ऐसा मत समझ लेना कि मैं कह रहा हूं बच्चों के प्रति कठोर हो जाओ। यह भी नहीं कह रहा हूं कि बच्चों की उपेक्षा करो, उदासीन हो जाओ।
जीवन में बड़ा संतुलन रखना जरूरी है न तो अति प्रेम, न उपेक्षा मध्य। और जो मध्य को खोज लेता है, उसे जीवन की कुंजी मिल जाती है। जैसे नट चलता है रस्सी पर ठीक मध्य में, सम्हाल कर अपने को! कभी थोडा बायें झुकता, कभी थोड़ा दायें; लेकिन दायें झुकता है इसीलिए कि बायें गिर न जाये, बायें झुकता है इसीलिए कि दायें गिर न जाये। बस झुककर अपने संतुलन को बना लेता है और बीच में चलता जाता है। ऐसे ही जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को मध्य को सम्हालना चाहिए। बुद्ध ने कहा है : मक्षिम निकाय। बीच में जो चलना सीख ले, वह सत्य तक पहुंच जाता है।
जीवन की हर प्रक्रिया में बीच में चलना सीखो। ठीक मध्य में होना स्वर्णसूत्र है। न तो अति प्रेम में पड़ जाना। क्योंकि अति मिठास सडन पैदा कर देगी। न अति उदास हो जाना, क्योंकि अति कड़वाहट हानिकर हो जायेगी, हिंसा हो जायेगी। और यह संतुलन प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही ढंग से खोजना होता है। इसके लिए कोई बंधे हुए सूत्र नहीं दिये जा सकते। मैं नहीं कह सकता कि यह ठीक बंधा हुआ ऐसा सूत्र है, क्योंकि हर स्थिति में यह संतुलन अलग अलग होगा। किसी दिन बच्चा बीमार है, उस दिन थोड़ा बायें झुकना होगा; किसी दिन बच्चा प्रसन्न है, उस दिन थोड़ा दायें झुकना होगा। किसी दिन बच्चे की जरूरत कुछ और है, किसी दिन जरूरत नहीं है। प्रतिदिन, प्रतिपल जरूरतें बदलती हैं। और जरूरतों के बदलने के साथ व्यक्ति को सम्यकरूपेण बदलते रहना चाहिए। इसको ही मैं सम्यक प्रेम कहता हूं।
इसका ही ध्यान रखो कि बच्चे का हित हो सके, कल्याण हो सके। बच्चा अपने जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हो, स्वतंत्र हो, व्यक्तित्ववान हो, आत्मवान हो, शांत हो, मस्त हो, परमात्मा का तलाशी हो। बस इतनी बातें खयाल में रहें, इन्हीं को सूत्र मानकर चलते चलते न केवल बच्चों को तुम ठीक राह दे सकोगे, बच्चों को ठीक राह देते देते तुम्हें भी ठीक राह मिल जायेगी।
मरौ हे जोगी मरौ
ओशो
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