सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष
हो। कोई विश्वास मत पकड़ो, विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो,
श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर
कैसे श्रद्धा कर सकते हो?
सारिपुत्र बुद्ध के पास आया और उसने कहा : ‘मैं आपमें विश्वास करने के
लिए आया हूं मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता
करें।’ बुद्ध ने कहा : ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें
श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही
तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’
यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है तो किसी में भी
श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है; तो ही वह
प्रवाहित हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन
अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर
तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में
श्रद्धा करो। और मत सोचो कि हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते
हैं; साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी
तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे; वे तुम्हें
प्रौढ़ बनाएंगे, वे तुम्हें परिपक्वता देंगे।’’
बड़ी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आंख से देखते हो, तुम दूसरों की
जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही
तुम्हारा भाव है या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है?
क्या यह तुम्हारा जानना है? क्या तुमने जाना है? तुम कहते हो कि चांदनी
अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? या कवि इसके गीत गाते रहे
हैं और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?
अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं
जी सकते। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच
कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है? मेरा अपना अनुभव है? उस सबको बाहर
फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण
दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।
तंत्र सूत्र
ओशो
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