बुद्ध के जीवन पर जो कथा सूत्र लिखे गए हैं, हर सूत्र के पहले जो बात आती है, वह पढ़नेवालों को कभी बड़ी हैरान करने लगती है।
एक बौद्ध भिक्षु कुछ दिन मेरे पास रुके। वे मुझसे कहने लगे कि आपका
बुद्ध से गहरा लगाव है। और मैं तो बौद्ध भिक्षु हूं लेकिन एक बात मेरी समझ
में नहीं आती, हर सूत्र के पहले यही आता है. ‘ भगवान आए, उनकी चाल बड़ी शांत
थी, उनकी श्वासें बड़ी शांत थीं। वे सुखपूर्वक आसन में बैठे। उन्होंने आंख
बंद कर ली, क्षण भर को सन्नाटा छा गया। फिर उन्होंने आंख खोली, फिर वे
सुखपूर्वक बोले।’ तब सूत्र शुरू होता है .. तो उस बौद्ध भिक्षु ने मुझसे पूछा कि हर सूत्र के पहले यह बात दोहराने की क्या जरूरत है?
मैंने उससे कहा, जो सूत्र में कहा है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है सूत्र नंबर दो है यह नंबर प्रथम है। क्योंकि जिससे सूत्र निकला है
उसके संबंध में पहले बात होनी चाहिए तो ही सूत्र मूल्यवान है। ये सूत्र तो
तुम भी बोल सकते हो। इसमें कुछ बड़ी अड़चन नहीं है। तुम्हें भी पता है। लेकिन
बुद्ध की भांति तुम उठ न सकोगे, बैठ न सकोगे। बुद्ध की भांति तुम श्वास न
ले सकोगे। ये सूत्र तो तुम भी बोल सकते हो।
एक जापानी बौद्ध भिक्षु की
पुस्तक मैं कल रात पढ़ रहा था। वह मनोवैज्ञानिक है और उसने झेन ध्यान के ऊपर
एक किताब लिखी है। कैसे झेन ध्यान से चिकित्सा हो सकती है पागलों की,
विक्षिप्तों की। और सारी चिकित्सा का मूल जो आधार है वह है श्वास की गति।
श्वास जितनी शांत हो उतना ही चित्त शांत हो जाता है।
साधारणत: हम एक मिनट में कोई सोलह से लेकर बीस श्वास लेते हैं। धीरे
धीरे धीरे धीरे झेन फकीर अपनी श्वास को शांत करता जाता है। श्वास इतनी
शांत और धीमी हो जाती है कि एक मिनट में पांच.. .चार पांच श्वास लेता। बस,
उसी जगह ध्यान शुरू हो जाता है।
तुम अगर ध्यान सीधा न कर सको तो इतना ही अगर तुम करो तो तुम चकित हो
जाओगे। श्वास ही अगर एक मिनट में चार पांच चलने लगे, बिलकुल धीमी हो जाए तो
यहां श्वास धीमी हुई, वहां विचार धीमे हो जाते हैं। वे एक साथ जुड़े हैं।
इसलिए तो जब तुम्हारे भीतर विचारों का बहुत आंदोलन चलता है तो श्वास ऊबड़
खाबड़ हो जाती है। जब तुम पागल होने लगते हो तो श्वास भी पागल होने लगती है।
जब तुम वासना से भरते हो तो श्वास भी आंदोलित हो जाती है। जब तुम क्रोध से
भरते हो तो श्वास भी उद्विग्न हो जाती है, उच्छृंखल हो जाती है। उसका सुर
टूट जाता है।, संगीत छिन्न भिन्न हो जाता है, छंद नष्ट हो जाता है। उसकी लय
खो जाती है।
झेन फकीर श्वास पर बड़ा ध्यान देते हैं। यह जो मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर
रहा था, यह एक झेन फकीर के मस्तिष्क में यंत्र लगा कर जांच कर रहा था कि कब
ध्यान ही अवस्था आती है। कब अल्फा तरंगें उठती हैं। बीच में अचानक अल्फा
तरंगें गईं एक सेकेंड को। और उसने गौर से देखा तो फकीर की श्वास
गड़बड़ा गई थी। फिर फकीर सम्हल कर बैठ गया, फिर उसने श्वास व्यवस्थित कर ली।
फिर तरंगें ठीक हो गईं। फिर अल्फा तरंगें आनी शुरू हो गईं।
झेन फकीर कहते हैं, श्वास इतनी धीमी होनी चाहिए कि अगर तुम अपनी नाक के
पास किसी पक्षी का पंख रखो तो वह कंपे नहीं। इतनी शांत होनी चाहिए श्वास कि
दर्पण रखो तो छाप न पड़े। ऐसी घड़ी आती ध्यान में, जब श्वास बिलकुल रुक गई
जैसी हो जाती है। कभी कभी साधक घबड़ा जाता है कि कहीं मर तो न जाऊंगा! यह हो
क्या रहा है?
घबड़ाना मत, कभी ऐसी घड़ी आए आएगी ही जो भी ध्यान के मार्ग पर चल रहे
हैं, जब श्वास, ऐसा लगेगा चल ही नहीं रही। जब श्वास नहीं चलती तभी। मन भी चलता। वे दोनों साथ साथ जुड़े हैं। ऐसा ही पूरा शरीर जुड़ा है। जब तुम शांत होते हो तो तुम्हारा शरीर भी एक
अपूर्व शांति में डूबा होता है। तुम्हारे रोएं रोएं में शांति की झलक होती
है। तुम्हारे चलने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बैठने
में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने
में।
ध्यान कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि एक घड़ी बैठ गए और कर लिया। ध्यान तो
कुछ ऐसी बात है कि जो तुम्हारे चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाता है। जीवन तो
एक अखंड धारा है। घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं, तो ध्यान होगा ही
नहीं। ध्यान जब फैल जाएगा तुम्हारे चौबीस घंटे की जीवन धारा पर…। ध्यानी
को तुम सोते भी देखोगे तो फर्क पाओगे। उसकी निद्रा में भी एक परम शांति है।
यही है यह सूत्र:
सुखमास्ते सुखं शेते सुखामायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेऽपि शांतधी:।।
वह जो ज्ञानी है, शांतधी:, जिसकी प्रज्ञा शांत हो गई है, वह व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है।
तुम तो ध्यान में भी बैठो तो सुखपूर्वक नहीं बैठ पाते। तुम तो प्रार्थना
भी करते हो तो व्यग्र और बेचैन होते हो। ज्ञानी व्यवहार में भी सुखपूर्वक
बैठता है। उसका सुखासन खोता ही नहीं। यह सुखासन कोई योग का आसन नहीं है, यह
उसकी अंतर्दशा है। सुखमास्ते वह सुख में ही बैठा हुआ है। सुखासन।
सुखमास्ते। सुख में ही बैठा हुआ है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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