शतपथ ब्राह्मण ठीक ही कहता है : को वेद मनुष्यस्य? ‘कौन जान सका मनुष्य
को?’ नहीं कोई दूसरा कभी जान सका। और जब तक मनुष्य भी मनुष्य ही है…
‘मनुष्य’ शब्द को सोचना, विचारना, मन से बना है जिसके पास मन है, वह
मनुष्य। इसलिए मनुष्य भी जब तक मनुष्य है, इसे न जान सकेगा। मनुष्य से थोड़ा
पार जाना होगा। मन के पार जाओगे तो मनुष्य .के पार चले जाओगे। वही भगवत्ता
का लोक है।
मेरे लिए कोई भगवान नहीं है अस्तिस्व में, भगवत्ता है।
प्रत्येक मनुष्य बीज है भगवत्ता का। मनुष्यता पीछे छूट जाए तो भगवत्ता का फूल खिल जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति छिपा हुआ भगवान है। नहीं जानता, नहीं पहचानता यह और बात है। और यही उसका रहस्य है।
भगवत्ता है रहस्य मनुष्यता का। और जब तक तुम भगवत्ता से परिचित न हो जाओ
तब तक नहीं अपने को जान सकोगे, नहीं पहचान सकोगे। शास्त्रों को दोहराते
रहो तोतों की तरह, प्यारे वचन हैं, सुंदर शब्द हैं, मधुर काव्य है, सब है,
मगर मुर्दा है। जीवंत तो तभी: होगा जब स्वयं की प्रतीति होगी। और वह
तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है।
लेकिन अपने भीतर जाना होगा। मंदिरों में जाने से नहीं होगा, मसजिदों में
जाने से नहीं होगा, चर्चो और गुरुद्वारों में वह नहीं मिलेगा। वह तुम्हारे
भीतर विराजमान है। ठहरो, आंख बंद करो, अपने भीतर डूबो। जब सब ठहर जाएगा
तुम्हारे भीतर, कोई हलन चलन न होगी, कोई विकल्प न होगा, निर्विकल्पता
होगी तत्क्षण जैसे सूर्य क्या आए, सुबह हो जाए, और तुम्हारे प्राणों की
वीणा भी बज उठेगी! तुम्हारे गीत भी मुखर हो उठेंगे। तब तुम जानोगे, मगर
गूंगे का गुड़ ही रहेगा जानना। जान लोगे लेकिन कह न सकोगे। जीने लगोगे मगर
अभिव्यक्ति न दे सकोगे। इसलिए सद्गुरु सत्य नहीं दे सकता, लेकिन उसके जीने
की आभा, उसकी मौजूदगी का प्रसाद, उसकी उपस्थिति निश्चित ही, तुम्हारे भीतर
जो सोया है, उसे सुगबुगा सकती है। तुम्हारे भीतर जो जागा नहीं सदियों से,
शायद करवट ले ले। तुम्हारे भीतर जो मूर्च्छा है वह उसके जागरण की चोट से
टूट सकती है। और तुम्हारा बुझा दीया उसके जले दीये के करीब आ जाए… और यही
सत्संग का अर्थ है : जले दीये के करीब बुझे दीये का आ जाना। यही गुरु और
शिष्य का संबंध और नाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है—जले हुए दीये के करीब
बुझे हुए दीये का आ जाना और एक घड़ी ऐसी है, एक स्थान ऐसा है, जहां जले
दीये से ज्योति एक क्षण में बुझे दीये में प्रवेश कर जाती है। और इसका गणित
बड़ा अनूठा है। बुझे दीये को सब कुछ मिल जाता है और जले दीये का कुछ भी
खोता नहीं है।
राम नाम जान्यो नहीं
ओशो
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