नागार्जुन से एक चोर ने पूछा था: आप कहते हैं होशपूर्वक जो भी करो, वह ठीक है। अगर मैं होशपूर्वक चोरी करूं तो?
नागार्जुन ने कहा: तो चोरी भी ठीक है; होशपूर्वक भर करना, शर्त याद रखना!
उस चोर ने कहा: तो ठीक है, तुमसे मेरी बात बनी। मैं बहुत गुरुओं के पास
गया, मैं जाहिर चोर हूं। जैसे गुरु प्रसिद्ध हैं, ऐसे ही मैं भी प्रसिद्ध
हूं। सब गुरु मुझे जानते हैं। आज तक पकड़ा नहीं गया हूं। सम्राट भी जानता
है; उसके महल से भी चोरियां मैंने की हैं, मगर पकड़ा नहीं गया हूं। अब तक
मुझे कोई पकड़ नहीं पाया है। तो जब भी मैं किसी गुरु के पास गया, तो वे
मुझसे यही कहते हैं पहले चोरी छोड़ो, फिर कुछ हो सकता है। चोरी मैं छोड़
नहीं सकता। तुमसे मेरी बात बनी। तुम कहते हो चोरी छोड़ने की जरूरत ही नहीं
है?
नागार्जुन ने बड़े अदभुत शब्द कहे थे। नागार्जुन ने कहा था: तो जिन
गुरुओं ने तुमसे कहा चोरी छोड़ो, वे भी चोर ही होंगे; भूतपूर्व चोर होंगे,
इससे ज्यादा नहीं। नहीं तो चोरी से उनको क्या लेना देना? मुझे चोरी से क्या
लेना देना? मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो, फिर तुम्हें जो करना हो करो।
मैं तुम्हें दीया देता हूं; फिर दीए के रहते भी तुम्हें दीवाल से निकलना
हो, तो निकलो। मगर मैं जानता हूं, जिसके हाथ में दीया है, वह द्वार से
निकलता है। मैं नहीं कहता कि दीवाल से मत निकलो।
अंधेरे में जो आदमी है, उससे क्या कहना कि दीवाल से मत निकलो! वह तो
टकराएगा ही, वह तो गिरेगा ही। उसे तो द्वार कैसे मिलेगा? दीवाल बड़ी है;
चारों तरफ दीवालें ही दीवालें हैं। हमने ही खड़ी की हैं। निकल नहीं पाओगे।
और जब निकलोगे नहीं, बार बार गिरोगे। और पुजारी पंडित चिल्ला रहे हैं कि
दीवाल से टकराए कि पाप हो गया। फिर टकराए, फिर पाप हो गया! और जितने तुम
घबड़ाने लगोगे, उतने ज्यादा टकराने लगोगे। उतने तुम्हारे पैर कंपने लगेंगे।
नागार्जुन ने ठीक कहा मैं दीया देता हूं, अब तुझे दीवाल से निकलना हो, तेरी मर्जी; मगर दीया भर न बुझ पाए, दीए को सम्हाले रखना।
वह चोर पंद्रह दिन बाद आया, उसने कहा: मैं हार गया, तुम जीत गए। तुम
आदमी बड़े होशियार हो। तुमने खूब मुझे धोखा दिया। मैं जिंदगी भर लोगों को
धोखा देता रहा, तुमने मुझे धोखा दे दिया! आज पंद्रह दिन से कोशिश कर रहा
हूं होशपूर्वक चोरी करने की, नहीं कर पाया। क्योंकि जब होश सम्हलता है,
चोरी की वृत्ति ही चली जाती है; जब चोरी की वृत्ति आती है, तब होश नहीं
होता।
तुम जरा करके देखना, तुम भी करके देखना, होशपूर्वक झूठ बोलकर देखना। होश
सम्हलेगा, सच ओंठों पर आ जाएगा। होश गया, झूठ बोल सकते हो। जरा होशपूर्वक
कामवासना में उतरकर देखना। होश आया, और सारी वासना ठंडी पड़ जाएगी, जैसे
तुषारपात हो गया! होश गया, उत्तप्त हुए। बेहोशी में ताप है, ज्वर है। होश
शीतल है। होशपूर्वक कोई कामवासना में न कभी उतरा है, न उतर सकता है। इसलिए
मैं तुमसे नहीं कहता कामवासना छोड़ो, मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो। फिर
जो छूट जाए, छूट जाए; जो न छूटे, वह ठीक है। होशपूर्वक जीवन जीने से जो बच
जाए, वही पुण्य है; और जो छूट जाए, छोड़ना ही पड़े होश के कारण, वही पाप है।
मगर पाप पुण्य का मैं तुम्हें ब्योरा नहीं देता, मैं तो सिर्फ दीया
तुम्हारे हाथ में देता हूं।
कहै वाजिद पुकार
ओशो
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