परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जिससे तुम्हारा कभी मिलन होगा। परमात्मा
इसी अस्तित्व का दूसरा नाम है। मिलन हो रहा है, लेकिन तुम्हारी भ्रांत
धारणा कि परमात्मा कोई व्यक्ति है, कि मिलेगा कहीं राम के रूप में, कि
मिलेगा कहीं कृष्ण के रूप में, कि क्राइस्ट के रूप में, कि बुद्ध के रूप
में, कि महावीर के रूप में। इसी से तुम भटके हो, इसीलिए मिलना नहीं हो पा
रहा है। तुम्हारी धारणा अड़चन बन रही है।
परमात्मा सामने खड़ा है, लेकिन तुम कहते हो जब तक धनुष-बाण हाथ न लोगे…
तब लगि झुके न माथ। माथा हमारा झुकनेवाला नहीं। पहले धनुष-बाण लो हाथ।
तुम्हारी शर्तें हैं। तुम्हारे छोटे-छोटे लोगों की शर्तें तो ठीक हैं; यह
तुलसीदास का वचन है।
तुलसीदास को ले गये कुछ मित्र कृष्ण के मंदिर में। सब तो झुके, तुलसीदास
न झुके। उन्होंने कहा मेरा माथा नहीं झुकेगा! मैं तो बस एक को ही जानता
हूं-धनुष-बाण हाथ में जो लेता है। अब उधर कृष्ण खड़े हैं बांसुरी बजाते,
मोर-मुकुट बांधे। कृष्ण नहीं जंचते तुलसीदास को।
कैसा संकीर्ण चित्त है हमारे तथाकथित महात्माओं का भी! रामचंद्रजी को
बांसुरी न बजाने दोगे? धनुष-बाण ही लिये रहें चौबीस घंटे? आदमियों को भी
छुट्टी मिलती है। ओवरटाइम भी कभी खतम हो जाता है। लेकिन वे कहते हैं जब तक
धनुष-बाण हाथ न लोगे, मैं नहीं झूकूंगा। मैं तो सिर्फ एक के सामने झुकता
हूं-धनुष-बाण वाले के।
यह जरा खयाल करना, यह आदमी झुकना जानता ही नहीं। यह तो कह रहा है कि
झुकूंगा भी तब जब मेरी शर्त पूरी हो। यह झुकना भी सशर्त है। इस झुकने में
भी अहंकार है। यह कहता है, मेरी शर्त पूरी करो तो मैं झुकूं। यह सौदा है
साफ। अगर झुकवाना हो मुझे, अगर रस हो तुम्हें कि मैं झुकूं तो मेरी शर्त
पूरी करो। मैं तो अपनी धारणा के सामने झुकूंगा। यह अहंकार है। तुम कैसे हो,
मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। अभी तुम बांसुरी बजा रहे हो, यह मोर-मुकुट
बांधे खड़े हो, खड़े रहो। यह मेरी मान्यता नहीं, मैं तो अपनी मान्यता के
सामने झुकूंगा। ले लो धनुष-बाण हाथ, तो मैं झुक जाऊं।
यही अड़चन है। अब ये बेचारे वृक्ष कैसे धनुष-बाण हाथ लें? यह सूरज कैसे
धनुष-बाण हाथ ले? ये चांद-तारे कैसे धनुष-बाण हाथ लें? कठिनाई है। और
परमात्मा खड़ा है सूरज की तरह द्वार पर आकर, मगर तुम न झुकोगे। बाबा
तुलसीदास नहीं झुके तो तुम कैसे झुकोगे! धनुष-बाण लो हाथ, फिर झुकूंगा।
अस्तित्व धनुष-बाण हाथ नहीं ले सकता और न बांसुरी हाथ ले सकता है।
अस्तित्व कोई व्यक्ति थोड़े ही है। लेकिन हमने व्यक्ति की धारणा बना रखी है
कि परमात्मा कोई व्यक्ति है। बस भटकते रहो। तुम्हें कभी परमात्मा नहीं
मिलेगा। और अगर कभी मिल जाये धनुष-बाण हाथ लिये, तो समझ रखना कि यह
तुम्हारे मन की भ्रांति है, तुम्हारी कल्पना का जाल है, यह तुम्हारा सपना।
यह तुमने इतने दिन तक सपना देखा है कि अब तुम खुली आख भी देखने लगे हो। यह
दिवास्वप्न है। यह एक विभ्रांति है।
यह कोई परमात्मा नहीं है जो तुम्हारे भीतर आख जब तुम बंद करते हो,
धनुष-बाण लेकर खड़ा हो जाता है, कि बांसुरी बजाता है, कि सूली पर लटका हुआ
जीसस..। यह तो तुम्हारी मान्यता है। और तुमने इस मान्यता को बचपन से इतना
दोहराया है, इतना दोहराया है, इतना दोहराया है कि दोहरा-दोहरा कर तुमने
अपने को आत्म-सम्मोहित कर लिया है। अब तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। यह तुम कोई
भी चीज इस तरह देख सकते हो। जरा दोहराये चले जाओ, दोहराये चले जाओ, जिद
किये चले जाओ, कोई भी चीज तुम्हें ऐसी ही दिखाई पड़नी शुरू हो जायेगी। तुम
थोड़े प्रयोग करके देखो।
नागार्जुन के पास एक युवक गया। और उसने कहा कि मुझे परमात्मा का अनुभव
होना शुरू हो गया है। उनकी छवि सामने खड़ी हो जाती है। आख बंद करता हूं
मंद-मंद स्मित परमात्मा सामने खड़े, बड़ा रस आता है। नागार्जुन ने कहा : तुम
एक काम करो। नागार्जुन एक फक्कड़ साधु था, अदभुत साधु था; जैसा गोरख, ऐसा ही
आदमी। उसने कहा, तू एक काम कर, फिर पीछे बात करेंगे इस अनुभव की। तू सामने
यह जो छोटी-सी गुफा है इसके भीतर बैठ जा, और तीन दिन तक यही सोच कि मैं
आदमी नहीं हूं भैंस हूं।
उसने कहा : क्या मामला, क्यों सोचूं? नागार्जुन ने कहा कि अगर मुझसे कुछ
संबंध रखना है और कुछ समझना है तो यह करना पड़ेगा, एक छोटा-सा प्रयोग है,
इसके बाद फिर रहस्य खोलूंगा। तीन दिन वह आदमी बैठा रहा; जिद्दी आदमी था। जो
भगवान की छवि तक को खींच लाया था, भैंस में क्या रखा है? लग गया जोर से,
तीन दिन न सोया, न खाया, न पीया! भूखा-प्यासा, थका-मादा रटता ही रहा एक बात
कि मैं भैंस हूं। एक दिन, दो दिन, दूसरे दिन वहां से, भीतर से भैंस की
आवाज सुनाई पड़ने लगी। बाहर में गुफा से लोग झांककर देखने लगे कि मामला क्या
है पू था तो आदमी ही, मगर भैंस की आवाज निकलने लगी, रंभाने लगा। तीसरे दिन
जब आवाज बहुत हो गयी और नागार्जुन को बहुत विम्न-बाधा पड़ने लगी उसकी आवाज
से, तो नागार्जुन उठा अपनी गुफा से, गया और कहा कि मित्र अब बाहर आ जाओ। वह
बाहर आने की कोशिश किया, लेकिन बाहर निकल न पाये।
नागार्जुन ने पूछा, बात क्या है? उसने कहा, निकलूं कैसे, मेरे सींग..
दरवाजा छोटा है। नागार्जुन ने उसे हिलाया और कहा : आख खोल नासमझ! यह मैंने
तुझसे इसलिए करने को कहा कि मैं समझ गया तुझे देखकर कि तू जिसको परमात्मा
समझ रहा है यह तेरा आत्म-सम्मोहन है। अब देख तूने अपने को भैंस समझ लिया।
तीन दिन में भैंस हो गया। हुआ कुछ भी नहीं है, तू वैसा ही का वैसा आदमी है;
दरवाजा वही। जैसा तू भीतर आया था वैसा ही का वैसा है। निकल बाहर!
आंख खोली, थोड़ा चौंका। धक्का मारा उसको तो बाहर निकल आया। लेकिन अभी उसके सीग अटकने लगे थे!
तुमने देखा होगा अगर किसी सम्मोहित करने वाले को कभी मंच पर, किसी
जादूगर को, तो वह सम्मोहित कर देता है लोगों को। सिर्फ उनको भाव बिठा देता
है मन में। बस जो भाव बिठा देता है, वही वे करने लगते हैं, वैसा ही व्यवहार
करने लगते हैं।
जिसको तुमने धर्म के नाम से जाना है वह आत्म-सम्मोहन से ज्यादा नहीं है।
वास्तविक धर्म समस्त सम्मोहन से मुक्त होने का नाम है। और तब परमात्मा
व्यक्ति नहीं है, तब परमात्मा समष्टि है। तब परमात्मा इस सारे अस्तित्व का
जोड़ मात्र है। और तब अदभुत रसधार बहती है। क्योंकि जहां जाओ उसी से मिलना
हो जाता. है। फिर जगत, फिर जीवन बहुत प्यारा है! और जब जीवन ऐसा प्यारा है
तभी समझना कि धर्म का तुम्हारे जीवन में आविर्भाव हुआ, सूत्रपात हुआ, धर्म
की पहली बूंद पड़ी।
मरौ हे जोगी मरौ
ओशो
No comments:
Post a Comment