निष्क्रियता का अर्थ आलस्य नहीं है, और न अकर्मण्यता है। निष्क्रियता का
अर्थ है: शक्ति तो पूरी है, ऊर्जा तो भरपूर है; उपयोग नहीं है। भीतर तो
ऊर्जा पूरी भरी है, लेकिन वासनाओं की दिशा में उसकी दौड़ रोक दी गई है।
आलस्य में ऊर्जा का अभाव है। सुबह-सुबह तुम पड़े हो अपने बिस्तर में; उठने
की ताकत ही नहीं पाते हो। अभाव है, कुछ कम है; शक्ति ही मालूम नहीं पड़ती।
एक करवट और लेकर सो जाते हो। इसे तुम निष्क्रियता मत समझना। यह अकर्मण्यता
है। करना तो तुम चाहते हो, करने की शक्ति नहीं है।
ठीक इससे उलटी है निष्क्रियता। करना तुम नहीं चाहते; करने की शक्ति बहुत
है। चाह चली गई है, शक्ति नहीं गई। आलसी की चाह तो है, शक्ति नहीं है।
ज्ञानी की चाह चली गई; चाह के जाते ही बहुत शक्ति बच गई। क्योंकि चाह में
जो शक्ति नष्ट होती थी अब उसके नष्ट होने की कोई जगह न रही। सब छिद्र बंद
हो गए। सब द्वार बंद हो गए।
तो ज्ञानी में और आलसी में तुम्हें कभी-कभी समानता दिखाई पड़ेगी; क्योंकि
ज्ञानी भी कुछ करता नहीं, आलसी भी कुछ करता नहीं। पर दोनों के कारण
अलग-अलग हैं।
और ठीक से समझ लेना, अन्यथा लाओत्से को पढ़ कर बहुत से लोग निष्क्रिय न होकर आलसी हो जाते हैं।
मेरे पास मेरे ही संन्यासी आकर कहते हैं कि आप ही तो समझाते हैं कि
निष्क्रिय हो रहो। फिर आप ही कहते हैं: ध्यान करो, काम करो। तो आप तो उलटी
बातें समझा रहे हैं।
आलसी होने को नहीं समझा रहा हूं। तुम आलसी होना चाहोगे। कौन नहीं होना
चाहता? मैं कह रहा हूं, चाह छोड़ो। चाह को तो तुम भलीभांति पकड़े हो; उसे
नहीं छोड़ते सुन कर। लेकिन निष्क्रियता जंच जाती है मन को। यह तो बड़ी अच्छी
बात हुई, कुछ भी नहीं करना है; ध्यान भी नहीं करना है।
सुबह छह बजे उठ कर ध्यान के लिए आना पड़ता है। तो संन्यासी मुझसे आकर
कहते हैं कि एक तरफ आप समझाते हैं कि सहज हो जाओ और सुबह तो उठने का मन
होता ही नहीं। इधर समझाते हैं निष्क्रिय हो जाओ, तो निष्क्रिय हम होते हैं
तो बिस्तर में ही पड़े रहते हैं। उधर कहते हैं ध्यान करने आ जाओ।
इसको तुम निष्क्रियता मत समझ लेना। यह शुद्ध आलस्य है। आलस्य जहर है, और
निष्क्रियता अमृत है। इतना फासला है उनमें। जमीन-आसमान का अंतर है। और मन
बहुत चालाक है। वह हमेशा ठीक को गलत से मिश्रित कर लेता है। वह बड़ा कुशल
कलाकार है। वह तुमसे कहता है कि ठीक है, जब परम ज्ञानियों ने कहा है कुछ न
करो, तो तुम क्यों करने में लगे हो!
परम ज्ञानियों ने कहा है कि तुम्हारे भीतर करने की जो आकांक्षा है, वह
खो जाए, करने की शक्ति नहीं। करने की आकांक्षा को भी इसलिए छोड़ने को कहा
है, ताकि शक्ति बचे।
तो एक तो आलसी आदमी है जो बिस्तर में पड़ा है, कुछ नहीं कर रहा।फिर तुमने देखा है, दौड़ के लिए तत्पर प्रतियोगी। दौड़ शुरू होने को है।
सीटी बजेगी, संकेत मिलेगा, अभी दौड़ शुरू नहीं हुई है। खड़ा है लकीर पर पैर
को रखे। अभी कुछ भी नहीं कर रहा है। लेकिन क्या तुम उसको आलसी कहोगे? बड़ी
ऊर्जा से भरा है। इधर बजी नहीं सीटी, उधर वह दौड़ा नहीं। तत्पर है,
रोआं-रोआं तत्पर है। श्वास-श्वास सजग है। क्योंकि एक-एक क्षण की कीमत है।
एक क्षण भी चूक गया, एक क्षण भी पीछे हो गया, तो हार निश्चित है। कुछ भी
नहीं कर रहा है; अभी इस क्षण तो खड़ा है मूर्ति की तरह, पत्थर की मूर्ति की
तरह। लेकिन तुम उसे आलसी न कह सकोगे। निष्क्रिय है वह अभी। अभी क्रिया नहीं
कर रहा है। ऊर्जा इकट्ठी है। ऊर्जा भीतर घनीभूत हो रही है। वह ऊर्जा का एक
स्तंभ हो गया है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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