तुम्हें भी कई बार लगता होगा, किसी व्यक्ति के पास जाने से तुम उद्विग्न
हो जाते हो। और किसी व्यक्ति के पास जाने से तुम शांत हो जाते। किसी
व्यक्ति के पास जाने का मन बार बार करता है। और कोई व्यक्ति रास्ते पर मिल
जाए तो तुम बच कर निकल जाना चाहते हो। शायद साफ साफ तुमने कभी सोचा भी न
हो कि ऐसा क्या है? कभी तो ऐसा होता है कि व्यक्ति से तुम पहले कभी मिले
नहीं थे और पहले ही मिलन में दूर हटना चाहते हो, भागना चाहते हो। और ऐसा भी
होता है कि कभी पहले मिलन में किसी पर आंख पड़ती है और उसके हो गए। सदा के
लिए उसके हो गए।
क्या हो जाता है? भीतर की तरंगें हैं जो गहरे में छूती हैं। कोई व्यक्ति
तुम्हें धक्के मार कर हटाता है। कोई व्यक्ति तुम्हें किसी प्रबल आकर्षण
में अपने पास खींच लेता है। किसी के पास सुख का स्वाद मिलता है। किसी के
पास होने ही से लगता है कि तुम हलके हो गए; जैसे बोझ उतर गया। और किसी के
पास जाने से ऐसा लगता है, सिर भारी हो आया; न आते तो अच्छा था। उदास कर
दिया उसकी मौजूदगी ने। उसने अपने दुख, अपनी पीड़ाएं, अपनी चिंताएं कुछ तुम
पर भी फेंक दीं।
स्वाभाविक है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति तरंगित हो रहा है। प्रत्येक
व्यक्ति अपनी समस्तता को ब्रॉडकास्ट कर रहा है। उससे तुम बच नहीं सकते।
उसके भीतर का गीत चारों वक्त चारों दिशाओं में आंदोलित हो रहा है। तुम उसके
पास गए कि तुम पकड़ोगे उसके गीत को। अगर गीत बेसुरा है तो बेसुरेपन को
पकड़ोगे। अगर गीत शास्त्रीय संगीत में बंधा है तो डोलोगे, मस्त हो जाओगे।
हर व्यक्ति का स्वाद है। सत्संग का इसीलिए इतना मूल्य है। किसी ऐसे
व्यक्ति के पास बैठ जाना, जो शांत हो गया है। तो उससे कभी तुम्हें झलक
मिलेगी अपने भविष्य की कि ऐसा कभी मेरे जीवन में भी हो सकता है। जो एक के
जीवन में हुआ, दूसरे के जीवन में क्यों नहीं हो सकता? और स्वाद लेते लेते
ही तो आकांक्षा उठती है, अभीप्सा उठती है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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