आदमी के साथ अक्सर ऐसी हालत है। वह जो सामने है, वह हमें दिखायी नहीं पड़ता। और परमात्मा बिलकुल सामने है।
एक आदमी मेरे पास आया, उसने कहा, परमात्मा को कहां खोजें? मैंने कहा,
तुम नाक की सीध में चले जाओ। मिल ही जाएगा, पक्का है। क्योंकि सारे संत यही
कहते रहे कि वह सामने खड़ा है। तो नाक की सीध में चले जाना। उसी से
टकराओगे, और तो मिलने को कोई है भी नहीं। तुम उसी से टकराते रहे हो।
जब तुम किसी एक स्त्री के प्रेम में पडे, तुम उसी के प्रेम में पड़े। और
जब तुम्हारे घर एक बेटा पैदा हुआ, वही पैदा हुआ। और जब तुमने एक फूल में
सुगंध पायी, तो उसी की सुगंध पायी। और जब तुमने आकाश में तारे देखे, तो उसी
को देखा। जब तुमने झरने का गीत सुना, तो वही गाया। जब कहीं कोई बांसुरी
बजी, तो उसकी ही बजी, क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। सिर्फ तुम
देखने में असमर्थ हो।
संन्यास का अर्थ है, तुमने देखने की चेष्टा शुरू की। तुमने कहा, आंख को
गाजेंगे, साफ करेंगे, निखारेंगे, काजल लगाएंगे। ध्यान यानी काजल। कि आंख को
शुद्ध करेंगे। कि आंख में जो कूड़ा करकट इकट्ठा हो गया है जन्मों जन्मों से
वासना का, विचार का, विकार का, उसको अलग करेंगे। यह पहला कदम हो गया।
अब तुम पूछते हो कि ‘क्या यह कदम उठा ही रहेगा या मंजिल भी मिलेगी?’
अगर यह उठ गया तो मंजिल मिल गयी। लेकिन मैं सोचता हूं, प्रश्न उठ रहा
है, क्योंकि कदम उठा न होगा। अक्सर ऐसा हो जाता है। तुम कल्पना कर लेते हो
कि उठ गया कदम। और वहीं के वहीं हो, कोई कदम नहीं उठा।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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