अभी पिछले वर्ष अमेरिका में एक आदमी मरा। वह जब बीस साल का था, तब हत्या
के अपराध में उसे पचास साल की सजा हुई। लेकिन वह अपराधी नहीं था, हत्या
भावावेश में हो गई थी। वह कोई वस्तुत: अपराधी नहीं था। बस, एक भावदशा में
हो गया। पचास साल की सजा हुई उसे। लेकिन उसका जीवन व्यवहार इतना अच्छा रहा
जेल में कि पच्चीस साल बाद उसको माफी मिल गई। उसे छोड़ दिया गया।
वह थोड़ी देर घूमकर गाव में वापस लौट आया। उसने कहा कि बाहर मैं नहीं
जाना चाहता। क्योंकि जब वह पकड़ा गया था, तब न तो कारें थीं रास्तों पर, न
बसें थीं। दुनिया ही और थी। और अब तो सारी दुनिया बदल गई थी पच्चीस साल
में। वह ठीक से समझ भी नहीं पाता था कि क्या हो रहा है, लोग क्या कह रहे
हैं। भाषा भी बदल गई थी। लोगों के ढंग, रीति रिवाज बदल गए थे। वह बिलकुल
घबड़ा गया। उसके परिवार का कोई भी बचा नहीं था। बाप मर चुका था, मां मर चुकी
थी। शादी उसकी कभी हुई नहीं थी।
वह वापस लौट आया। उसने कहा कि मैं नहीं जाना चाहता। अधिकारी जबरदस्ती
किए कि जाना ही पड़ेगा, क्योंकि तेरा काम ही यहां खतम हो गया। अब जेल के
भीतर नहीं रह सकता। तो उसने कहा, मैं बाहर ही रहा आऊंगा। लेकिन रहूंगा
यहीं।
वह पैंतीस साल और जीया, लेकिन जेल के बाहर ही जीया। बस, वहीं वह जेल के
बगीचे में काम करता रहता। अधिकारी उसे खाने को दे देते। वहीं जेल की दीवार
के पास वह सो रहता। धीरे धीरे उन्होंने इसके लिए कोठरी का इंतजाम कर दिया
कि अब यह जाएगा भी कहां। जाना भी नहीं चाहता। वह कभी जेल की परिधि को
छोड्कर बाहर नहीं गया पैंतीस साल दुबारा फिर।
तुम्हारे जीवन में भी ऐसे कारागृह तुमने बना लिए हैं। वे दुख दे रहे
हैं। बंधन में डाले हैं। उनके कारण क्रोध होता है। उनके कारण भय होता है।
उनके कारण पीड़ा होती है। लेकिन फिर भी तुम उनके आदी हो गए हो और उनकी धारणा
को पकड़े हुए हो, छोड़ना नहीं चाहते।
गलत को भी पकड़कर ऐसा लगता है, कुछ तो हाथ में है। बुरे को भी पकड़े ऐसा
लगता है, कम से कम हाथ खाली तो नहीं है।
इसको कहते हैं, तामस धृति: जानते
हुए कि दुख पा रहा हूं इस धारणा को छोड़ दूं नहीं छोड़ते। जानते हुए कि आलस्य
पीड़ा दे रहा है, जीवन बोझ हुआ जा रहा है, नहीं छोड़ते। सोचते ही नहीं कि
मेरी धारणा का फल है।
गीता दर्शन
ओशो
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