तो जो प्रेम मेरे प्रति है, उसे और फैलाओ! उसे इतना फैलाओ कि उस प्रेम
के लिए कोई पता ठिकाना न रह जाये। मुझसे सीखो; लेकिन मुझ पर रुको मत। मुझसे
चलो, लेकिन मुझ पर ठहरो मत।
जैनों का शब्द तीर्थंकर बड़ा बहुमूल्य है। तीर्थंकर का अर्थ होता है: घाट
बनानेवाला। घाट बना दिया, घाट बैठने के लिए नहीं है; दूर जाने के लिए है,
दूसरे घाट जाने के लिए है।
तो मैं अगर तुम्हारा घाट बन जाऊं और फिर तुम वहीं रुक जाओ और वहीं खील
ठोंक दो, और वहीं नाव को अटका लो, तो यह तो काम का न हुआ। मैं तुम्हें मेरे
किनारे पर कील ठोंककर रुकने न दूंगा। तुम लाख ठोंको, मैं उखाड़ता रहूंगा।
एक न एक दिन तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ जाने की तैयारी करनी होगी। उस
यात्रा के लिए तैयार रहो। निश्चित ही दूसरी तरफ जाने में यह किनारा दूर
होता हुआ मालूम होगा। लेकिन घबड़ाओ मत, मैं दूसरे पर मिल जाऊंगा–बहुत बड़ा
होकर!
पूछा है, “आप कब आएंगे?’
दूसरे किनारे पर! अब इस किनारे पर नहीं। और दूसरे किनारे पर जिस रूप में
आऊंगा, वह रूप शायद एकदम से पहचान में भी न आयेगा। दूसरे किनारे पर जिस
ढंग से आऊंगा शायद वह ढंग एकदम से समझ में भी न आयेगा।
गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है
बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है
हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का
जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है।
वह पहचान तो विराट की पहचान होगी। उसे अभी से पहचानने लगो। थोड़े दिन यह
देह होगी, फिर यह देह भी जायेगी; तब मैं तुमसे और भी दूर हो जाऊंगा। ऐसे
धीरे-धीरे एक-एक कदम तुमसे दूर होता जाऊंगा। थोड़ी देर बाद यह देह भी खो
जायेगी। फिर तुम मुझे किसी तरफ न देख सकोगे। सब तरफ देख पाओगे तो ही देख
सकोगे। उसकी तैयारी करवा रहा हूं। उसका धीरे-धीरे तुम्हें अभ्यास करवा रहा
हूं।
ये क्षण बहुमूल्य हैं। इन क्षणों में मिले हुए सुख में तो सुखी होओ ही,
इन क्षणों में मिले दुख में भी सुखी होओ। और बुद्धि की मत सुनो! हृदय की
सुनो! आऊंगा जरूर, लेकिन दूसरे किनारे पर। आना सुनिश्चित है, लेकिन तुम इस
किनारे पर मत रुके रह जाना; अन्यथा मैं उस किनारे प्रतीक्षा करूं और तुम
इसी किनारे बने रहो! इस किनारे से तो मेरे भी जाने के दिन करीब आयेंगे।
इसके पहले कि मैं इस किनारे से विदा होऊं, तुम अपनी खूंटी उखाड़ लेना, तुम
अपनी नाव को चला देना।
दूसरा किनारा दूर है और दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन जिस नदी का एक किनारा
है उसका दूसरा भी है ही, दिखाई पड़े न दिखाई पड़े। कहीं एक किनारे की कोई
नदी हुई है? तो प्रेम का एक रूप जाना, एक किनारा जाना: दूसरा भी है,वही भक्ति है।
मनुष्य को प्रेम किया, शुभ है। लेकिन वहां रुक मत जाना। वह प्रेम
धीरे-धीरे उठे लपट की तरह और परमात्मा के प्रेम में रूपांतरित हो।
मेरा
प्रेम तुम्हें मुक्त करे, तुम्हें मोक्ष दे, तो ही मेरा प्रेम है; बांध ले,
अटका दे, तो फिर मेरा प्रेम नहीं।
प्रेम सदा ही मोक्ष का द्वार है!
जिन सूत्र
ओशो
No comments:
Post a Comment