Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Monday, April 24, 2017

कोई किसी को बांध नहीं रहा



बुरे से बुरा आदमी भी अपनी एक सुंदर प्रतिमा बनाकर रखता है। वह सुंदर प्रतिमा बुरा होने में सहयोगी है; क्योंकि उस प्रतिमा के कारण ही तुम बुराई के घाव को नहीं देख पाते। उस प्रतिमा के कारण ही बुराई तुम्हें किस तरह बांधे हुए है, और किस भांति जहर तुम्हारे रोएं—रोएं में समा गया है, उसकी तुम्हें प्रतीति नहीं हो पाती। वह उस प्रतीति से बचने का उपाय है। इसलिए तुम विधि पूछते हो, मार्ग पूछते हो। 

यह तो पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि तुम बंध हो, क्योंकि तुम बंधना चाहते हो। यह कितना ही कष्टपूर्ण हो, लेकिन इसे भलाभांति समझ लेना कि जंजीरें तुम्हारे हाथ में हैं, किसी और ने तुम्हें पहनवाई नहीं, तुमने ही पहनी हैं।

दोष दूसरे पर डालना हमेशा सुगम है। पति सोचना है, पत्नी ने बंधन डाला हुआ है। कैसी मूढ़ता है! पत्नी सोचती है, पति ने बंधन डाला हुआ है। कैसा पागलपन है! कोई दूसरा बंधन डाल कैसे सकेगा? अगर तुम बंधन न चाहो, कोई तुम्हें रोक सकता? पत्नी रोक सकती, पति रोक सकता? बच्चे रोक सकते हैं? कौन रोक सकता है? दुनिया की कोई भी शक्ति तुम्हें बंधन में नहीं डाल सकती। तुम्हारी मुक्ति अपराजेय है, उसे पराजित नहीं किया जा सकता। अगर घुटने टेककर तुम रुके हो, तो तुम जिम्मेदार हो। कोई किसी को बांध नहीं रहा है। कोई किसी को बांध ही कैसे सकता है? कम से कम एक चीज तो ऐसी है जिस पर किसी का कोई वश नहीं है: वह तुम्हारी आंतरिक परम स्वतंत्रता है। 

सुनो भई साधो 

ओशो 

भगवान महावीर और महात्मा गांधी की अहिंसा में फर्क क्या है?





यही, जो मैं समझा रहा था। गांधी की अहिंसा नैतिक है। और नैतिक भी कभी-कभी; अधिक तो राजनैतिक है। नैतिक भी बहुत ऊंचाइयों पर; अन्यथा तो राजनैतिक है।

महावीर की अहिंसा धार्मिक है। महावीर के भीतर कुछ घटा है। उससे उनके आचरण में अहिंसा है। गांधी आचरण में कुछ घटा रहे हैं, इस आशा में ताकि भीतर कुछ घट जाए।

गांधी वैसे ईमानदार आदमी थे। और जो भी कर रहे थे वह भला गलत हो, लेकिन उन्होंने किया बड़ी निष्ठा से। उनकी निष्ठा में कोई संदेह नहीं है।

ऐसे ही जैसे कोई आदमी निष्ठापूर्वक रेत में से तेल निकालने की कोशिश कर रहा हो। उसकी निष्ठा में मैं शक नहीं करता। वह बड़े भाव से कर रहा है। बड़ा आयोजन किया है। जीवन लगा दिया है। लेकिन फिर भी मैं क्या कर सकता हूं! मैं यही कहूंगा कि रेत से तेल नहीं निकलता। तुम्हारी निष्ठा ठीक है, लेकिन निष्ठा क्या करेगी? यह तेल निकलेगा नहीं।

नैतिक, निष्ठावान, ईमानदार आदमी हैं। लुई फिशर ने गांधी के संबंध में एक लेख लिखा। और उसमें लिखा कि गांधी एक धार्मिक पुरुष हैं, जिन्होंने पूरे जीवन राजनैतिक होने की चेष्टा की है। गांधी ने तत्क्षण जवाब दिया कि यह बात उलटी है। मैं एक राजनैतिक व्यक्ति हूं, जिसने जीवन भर धार्मिक होने की चेष्टा की है।

उनकी ईमानदारी सौ टका है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है कि वे कभी भी अपने संबंध में झूठ नहीं बोले हैं। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे राजनैतिक व्यक्ति हैं और उन्होंने जीवन भर धार्मिक होने की चेष्टा की है। इसमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूं कि वह चेष्टा असफल हुई है। वे धार्मिक हो नहीं पाए। वे राजनीतिज्ञ ही विदा हो गए हैं।

फर्क नाजुक है। तो कई बार तो ऐसा लगता है, महावीर की अहिंसा तुम्हें दिखाई ही न पड़ेगी, गांधी की दिखाई पड़ेगी। क्योंकि गांधी की अहिंसा का बड़ा विस्तार है: आंदोलन हैं, क्रांति है, सारे विश्व पर इतिहास पर छाप है। महावीर की कौन सी छाप है? होगा, कोई चींटी न मरी होगी, वे सम्हल कर चले होंगे। चींटी कोई इतिहास लिखती है! कि उन्होंने पानी छान कर पीया होगा, कुछ कीटाणु न मरे होंगे। उन कीटाणुओं ने कोई शोरगुल मचाया? महावीर ने उस्तरे से अपने बाल न बनाए, क्योंकि कहीं कोई जूं पड़ गया हो और उस्तरे में दब कर मर जाए। उन्होंने बाल उखाड़े। वे केश-लुंच करते थे। साल भर में बाल उखाड़ डालते थे। लेकिन क्या अगर कोई जूं बच गया होगा बालों में इस भांति, वह कोई आत्मकथा लिखेगा कि इस महावीर ने हम पर बड़ी अहिंसा की?

महावीर की अहिंसा का कोई इतिहास थोड़े ही है! भीतर की घटना है। जिनके भीतर घटेगी वे ही पहचान सकते हैं। गांधी की अहिंसा तो हजारों साल तक याद रहेगी। उसके प्रमाण हैं। महावीर की अहिंसा का क्या प्रमाण है? इतना ही हम कह सकते हैं कि उन्होंने हिंसा नहीं की। अहिंसा की, ऐसा हम क्या कह सकते हैं?

इसको थोड़ा समझ लें। महावीर के जीवन को अगर हम गौर से देखें तो इतना ही कह सकते हैं कि उन्होंने हिंसा नहीं की। गांधी ने अहिंसा की। गांधी के कृत्य में अहिंसा है। महावीर के होने में अहिंसा है। और होना भीतर है, कृत्य बाहर है।

इसलिए गांधी की अहिंसा बहुत दफे डगमगा जाती है। क्योंकि वह नीति है, या राजनीति है। जीवन भर...जब जर्मनी ने फ्रांस और इंग्लैंड पर हमला किया दूसरे महायुद्ध में, तो गांधी ने पत्र लिखे इंग्लैंड और फ्रांस के नेताओं के नाम कि तुम समर्पण कर दो, हथियार डाल दो। लड़ो मत। देखें, कैसे तुम जीते जाओगे! हिटलर को निमंत्रण कर दो। उससे कहो, आ जाओ। वह रहना चाहे तो रहे तुम्हारी बस्तियों में। गांव खाली कर दो, मकान दे दो। 

अहिंसक आदमी की सलाह! इंग्लैंड के नेता सिर्फ हंसे। क्योंकि इस बकवास में कौन भरोसा करे! और उन्होंने ठीक ही किया कि वे हंसे। क्योंकि जब भारत और पाकिस्तान का झगड़ा शुरू हुआ और कश्मीर में उपद्रव हुआ, तो गांधी ने सेनाओं को आशीर्वाद दिया कि जाओ। तब वे भूल गए कि उन्होंने इंग्लैंड को क्या सलाह दी थी हिटलर के समय। तब वे राजी आशीर्वाद देने को सेनाओं को। आकाश में उड़ते भारतीय वायुसेना के विमानों को देख कर वे प्रसन्न हुए। वे बमों से भरे हुए जा रहे हैं। किसी ने पूछा कि क्या आपका आशीर्वाद है इन विमानों के लिए? उन्होंने कहा, पूरा आशीर्वाद है। अगर पाकिस्तान सीधे-सीधे नहीं मानता तो युद्ध के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। हिटलर हमला करे इंग्लैंड पर तो हथियार छोड़ दो। पाकिस्तान हमला करे कश्मीर पर तो हथियारों को आशीर्वाद दो! राजनीति है। यह कोई महावीर की अहिंसा नहीं है। यह कुशल राजनीतिज्ञ की बात है। जब जैसी जरूरत पड़े तब वह अपनी नीति बदल लेगा। जब जैसी जरूरत हो, जिस चीज से लाभ हो। 

सबै सयाने एक मत 

ओशो 

इस बात से लाभ था भारत को। क्योंकि अंग्रेजों से भगतसिंह की तरह लड़ना तो पागलपन था। भगतसिंह होंगे बड़े शहीद, लेकिन दिमाग खराब। क्योंकि उस तरह कहीं कुछ हो सकता था! हल कुछ भी न था। ऐसे कोई बंदूक चला देने से और बम फेंक देने से धारासभा में कुछ मुल्क आजाद नहीं हो सकता था। आदमी हिम्मतवर थे। अपने को मिटाने को तैयार थे, बस! इससे कोई आजादी नहीं आ सकती थी। गांधी कुशल राजनीतिज्ञ थे। भगतसिंह नासमझ छोकरा; गांधी कुशल बुद्धिमान राजनीतिज्ञ। भगतसिंह ने अपने को मिटा लिया, गांधी ने पूरे मुल्क को बचाया। मगर उसमें कुशलता है राजनीति की। सारा खेल राजनीति का है।


सत्य-विरोधी जीवन



एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक होटल-मालिक के बेटे से, कि पचास बाराती आए हो, तो जितनी दाल लगती है, तो यदि एक सौ पचास बाराती हों, तो उससे कितने गुना ज्यादा दाल लगेगी? उसके बेटे ने कहा दाल तो उतनी ही लगेगी; सिर्फ मिर्च और पानी की मात्रा बढ़ानी पड़ेगी। होटल मालिक का होनहार बेटा है। शिक्षित हो रहा है, दीक्षित हो रहा है। 

संसार में भरोसा भूल है। भरोसा किया कि भटके। संदेह सार है। संसार में मानकर ही चलना, कि सभी दुश्मन है, कोई मित्र नहीं। क्योंकि जिसको भी मित्र माना वही से संसार में गिराव शुरू हो जाएगा। संसार को तो शत्रु मानना। अगर किसी को मित्र कहो भी, तो कहना भर; मानना कभी नहीं।

यही तो कौटिल्य और मेक्यावली की शिक्षा है--किसी को मित्र मत मानना। मित्र को भी शत्रु की तरह ही जानना, ऊपर-ऊपर मित्रता दिखाना, भीतर शत्रुता मानना। क्योंकि अगर मित्र मान लिया, तो भरोसा कर लिया। जिसका भरोसा किया, वही धोखा देगा।

ठीक उलटी शिक्षा है जीसस की, शत्रु को भी मित्र मानना। तो जिसने पहली शिक्षा में काफी पारंगत कुशलता पा ली है, उसे दूसरी शिक्षा बड़ी मुश्किल हो जाएगा। सत्य की तरफ जाना हो तो श्रद्धा चाहिए। संसार की तरफ जाना हो तो जितनी ज्यादा संदिग्ध मन की दशा हो, उतना ही सहयोगी है। और संसार के लिए हम तैयार करते हैं।

तो अश्रद्धा का तो हमारे पास बड़ा निष्णात, कुशल आयोजन होता है। श्रद्धा का कोई अंकुर भी नहीं होता। इसलिए जब हम परमात्मा की तरफ भी मुड़ते हैं, तो वही शंकालु हृदय लेकर मुड़ते हैं, जो संसार में काम आता था। फिर वही बाधा बन जाता है। द्वार तो सदा खुला है उसका। अगर बंद है, तो तुम्हारा हृदय बंद है। आंख बंद है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी डाक्टर के पास गई थी। बीमार थी। वह उसे भीतर के कक्ष में ले गया, जहां जांच-पड़ताल करेगा। टेबल पर लेटते वक्त उसने कहा, एक बात; इसके पहले की बात मेरी जांच करें, नर्स को भीतर बुला लें।

डाक्टर थोड़ा नाराज हुआ। उसने कहा, क्या मतलब? क्या मुझ पर तुम्हारा भरोसा नहीं?

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा, कि आप पर तो पूरा भरोसा है। बाहर बैठे मेरे पति पर भरोसा नहीं। नर्स को भीतर ही बुला लें। पति और नर्स बाहर अकेले छूट गए हैं।

प्रतिपल--जिन से तुम्हारा प्रेम है और जिन से तुम कहते हो, कि हमारा प्रेम है, उन पर भी भरोसा नहीं। 

संसार में प्रेम पाप है, घृणा गणित है। और यही तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा है; इसकी ही पर्त दर पर्त तुम्हारे चारों तरफ जमी है। इसलिए जब तुम किसी दिन संसार में थककर परमात्मा के द्वार पर दस्तक देते हो, दस्तक व्यर्थ चली जाती है। क्योंकि द्वार तो बंद ही नहीं है; द्वार तो खुला ही है। तुम जिस पर दस्तक दे रहे हो वह तुम्हारी ही खड़ी की हुई दीवाल है। तुम अपनी ही दीवाल पर दस्तक दे रहे हो। परमात्मा का द्वार बंद कैसे हो सकता है? तुम्हारा ही संस्कारों का जाल तुम्हें चारों तरफ से घेरे है। तुम ही गलत हो गए हो।

और जब तब यह गलत होना ठीक न हो जाए तब तक लाख सिर पटकें दादू, कबीर, तुम्हें लगे भी कि तुम समझ गए, फिर भी तुम समझ न पाओगे। तुम्हारी समझ भी कोई काम न आएगी। क्योंकि तुम्हारी जो जीवन-स्थिति है, जो ढांचा तुमने बना लिया है, वह मूलतः सत्य-विरोधी है। 

पीव पीव लागी प्यास 

ओशो 


दस भिक्षुओं की कथा



दस भिक्षु सत्य की खोज में एक बार निकले थे। उन्होंने बहुत पर्वतों-पहाड़ों, आश्रमों की यात्रा की। लेकिन उन्हें कोई सत्य का अनुभव न हो सका। क्योंकि सारी यात्रा बाहर हो रही थी। किन्हीं पहाड़ों पर, किन्हीं आश्रमों में, किन्हीं गुरुओं के पास खोज चल रही थी। जब तक खोज किसी और की तरफ चलती है, तब तक उसे पाया भी कैसे जा सकता है, जो स्वयं में है।

आखिर में थक गए और अपने गांव वापस लौटने लगे। वर्षा के दिन थे, नदी बहुत पूर पर थी। उन्होंने नदी पार की। पार करने के बाद सोचा कि गिन लें, कोई खो तो नहीं गया। गिनती की, एक आदमी प्रतीत हुआ खो गया है, एक भिक्षु डूब गया था। गिनती नौ होती थी। दस थे वे। दस ने नदी पार की थी। लौटकर बाहर आकर गिना, तो नौ मालूम होते थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने को गिनना छोड़ जाता था, शेष सबको गिन लेता था। वे रोने बैठ गए। सत्य की खोज का एक साथी खो गया था।

एक यात्री उस राह से निकलता था, दूसरे गांव तक जाने को। उसने उनकी पीड़ा पूछी, उनके गिरते आंसू देखे। उसने पूछा, क्या कठिनाई है? उन्होंने कहा, हम दस नदी में उतरे थे, एक साथी खो गया, उसके लिए हम रोते हैं। कैसे खोजें? उसने देखा वे दस ही थे। वह हंसा और उसने कहा, तुम दस ही हो, व्यर्थ की खोज मत करो और अपने रास्ते चला गया।


उन्होंने फिर से गिनती की कि हो सकता है, उनकी गिनती में भूल हो। लेकिन उस यात्री को पता भी न था। उनकी गिनती में भूल न थी, वे गिनती तो ठीक ही जानते थे। भूल यहां थी कि कोई भी अपनी गिनती नहीं करता था। उन्होंने बहुत बार गिना, फिर भी वे नौ ही थे।


और तब उनमें से एक भिक्षु नदी के किनारे गया। उसने नदी में झांककर देखा। एक चट्टान के पास पानी थिर था। उसे अपनी ही परछाईं नीचे पानी में दिखाई पड़ी। वह चिल्लाया, उसने अपने मित्रों को कहा; आओ, जिसे हम खोजते थे, वह मौजूद है। दसवां साथी मिल गया है। लेकिन पानी बहुत गहरा है और उसे हम शायद निकाल न सकेंगे। लेकिन उसका अंतिम दर्शन तो कर लें। एक-एक व्यक्ति ने उस चट्टान के पास झांककर देखा, नीचे एक भिक्षु मौजूद था। सबकी परछाईं नीचे बनती उन्हें दिखाई पड़ी। तब इतना तो तय हो गया, इतने डूबे पानी में वह मर गया है।


वे उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। तब वह यात्री फिर वापस लौटा, उसने पूछा कि यह चिता किसके लिए जलाई हुई है? यह क्या कर रहे हो? उन नौ ही रोते भिक्षुओं ने कहा, मित्र हमारा मर गया है। देख लिया हमने गहरे पानी में डूबी है उसकी लाश। निकालना तो संभव नहीं है। फिर वह मर भी गया होगा, हम उसका अंतिम दाह-संस्कार कर रहे हैं।

उस यात्री ने फिर से गिनती की और उनसे कहा, पागलो! एक अर्थ में तुम सबने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया है। तुमने जिसे देखा है पानी में, वह तुम्हीं हो। लेकिन पानी में देख सके तुम, लेकिन स्वयं में न देख सके! प्रतिबिंब को पकड़ सके जल में, लेकिन खुद पर तुम्हारी दृष्टि न जा सकी! तुमने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया। और दसों ने मिलकर उस दसवें को दफना दिया है, जो खोया ही नहीं था।


उसकी इस बात के कहते ही उन्हें स्मरण आया कि दसवां तो मैं ही हूं। हर आदमी को खयाल आया कि वह दसवां आदमी तो मैं ही हूं। और जिस सत्य की खोज वे पहाड़ों पर नहीं कर सकते थे, अपने ही गांव लौटकर वह खोज पूरी हो गई। वे दसों ही जाग्रत होकर, जान कर, गांव वापस लौट आए थे।

उन दस भिक्षुओं की कथा ही हम सभी की कथा है। एक को भर हम छोड़ जाते हैं--स्वयं को। और सब तरफ हमारी दृष्टि जाती है--शास्त्रों में खोजते हैं, शब्दों में खोजते हैं; शास्ताओं के वचनों में खोजते हैं; पहाड़ों पर, पर्वतों पर खोजते हैं; सेवा में, समाज सेवा में; प्रार्थना में, पूजा में खोजते हैं। सिर्फ एक व्यक्ति भर इस खोज से वंचित रह जाता है--वह दसवां आदमी वंचित रह जाता है, जो कि हम स्वयं हैं।

असंभव क्रांति 

ओशो

Popular Posts