विजयानंद
और महेश भट्ट अभी आपके विरोध में कहते हैं। और एक संन्यासी स्वामी चिन्मय ने करंट में
लिखा है कि जब मेरे गुरु राजनीति के विरुद्ध में बोलते हैं तब वे धर्म से नीचे
गिरते हैं और साथ—साथ कि मैं जीवित शिष्य हूं इसलिए अपने गुरु के विरुद्ध कह सकता
हूं।
मुकेश भारती! जीसस को सूली लगी, शिष्य जुदास के कारण।
बुद्ध पर पहाड़ की चट्टान सरकाई गयी, शिष्य देवदत्त के
कारण। महावीर को बहुत अपमान, बहुत निंदा, बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी शिष्य गोशाला के कारण। यह स्वाभाविक है। जो हुआ
है पहले, वही फिर भी होगा। रामलीला तो वही है, अभिनेता बदल जाते हैं। मंच भी वही है, खेल भी
वही है; सिर्फ खेलनेवाले बदल जाते हैं। और जो हुआ पहले,
और आज भी होगा और कल भी होता रहेगा, उसके
विज्ञान को जरूर समझ लेना चाहिए।
शिष्यों की चार कोटियां हैं। पहली
कोटि—विद्यार्थी की है, जो कुतूहलवश आ जाता है; जिसके आने में न तो
साधना की कोई दृष्टि है, न कोई मुमुक्षा है, न परमात्मा को पाने की कोई प्यास है—चलें देखें, इतने लोग जाते हैं, शायद कुछ हो! तुम भी
रास्ते पर भीड़ खड़ी देखो तो रुक जाते हो, पूछने लगते हो
क्या है मामला? भीतर प्रवेश करना चाहते हो भीड़ में,
देखना चाहते हो कुछ हुआ होगा..। नहीं कि तुम्हें कोई प्रयोजन है,
अपने काम से जाते थे। आकस्मिक कुछ लोग आ जाते हैं। कोई आ रहा है,
तुमने उसे आते देखा; उसने कहा : क्या
करते हो बैठे—बैठे, आओ मेरे साथ चलो, सत्संग में ही बैठेंगे। खाली थे, कुछ काम भी न
था, चले आये। पत्नी आयी, पति साथ
चला आया; पति आया, पत्नी साथ चली
आयी। बाप आया, बेटा साथ चला आया।
ऐसे बहुत—से लोग आकस्मिक रूप से आ जाते हैं।
उनकी स्थिति विद्यार्थी की है। वे कुछ सूचनाएं इकट्ठी कर लेंगे, सुनेंगे तो कुछ सूचनाएं इकट्ठी
हो जायेंगी। उनका ज्ञान थोड़ा बढ़ जायेगा, उनकी स्मृति थोड़ी
सघन होगी। ऐसे आनेवालों में से, सौ में से दस हो रुकेंगे;
नब्बे तो छिटक जायेंगे। दस रुक जाते हैं यह भी चमत्कार है,
क्योंकि वे आये न थे किसी सजग—सचेत प्रेरणा के कारण—ऐसे ही
मूर्च्छित—मूर्च्छित किसी के धक्के में चले आये थे। पानी में बहती हुई लकड़ी की तरह
किनारे लग गये थे, किनारे की कोई तलाश न थी। कितनी देर
लगा रहेगा लकडी का टुकड़ा किनारे से? हवा की कोई लहर आयेगी,
फिर बह जायेगा; उसका रुकना—न—रुकना
बराबर है। लेकिन ऐसे लोगों में से भी दस प्रतिशत लोग रुक जाते हैं। जो दस प्रतिशत
रुक जाते हैं, वे ही दूसरी सीढ़ी में प्रवेश करते हैं।
दूसरी सीढ़ी साधक की है। पहली सीढ़ी में सिर्फ
बौद्धिक कुतूहल होता है—एक तरह की खुजलाहट! जैसे खाज खुजाने में अच्छा लगता है, हालांकि लाभ नहीं होता,
नुकसान होता है—ऐसे ही बौद्धिक—खुजलाहट से भी लाभ नहीं होता,
नुकसान होता है; पर अच्छा लगता है,
मीठा लगता है। यह पूछें, वह पूछें,
यह भी जान लें, वह भी जान लें; अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं कोई अज्ञानी नहीं हूं बिना ज्ञान के
ज्ञानी होने की भ्रांति पैदा हो जाती है। इसमें से दस प्रतिशत लोग रुक जायेंगे। ये
दस प्रतिशत साधक हो जायेंगे।
साधक का अर्थ है. जो अब सिर्फ सुनना नहीं
चाहता, समझना
नहीं चाहता, बल्कि प्रयोग भी करना चाहता है, प्रयोग साधक का आधार है। अब वह कुछ करके देखना चाहता है। अब उसकी
उत्सुकता एक नया रूप लेती है, कृत्य बनती है। अब वह ध्यान
के संबंध में बात ही नहीं करता, ध्यान करना शुरू करता है।
क्योंकि बात से क्या होगा, बात में से तो बात निकलती रहती
है। बात तो बात ही है, पानी का बबूला है, कोरी गर्म हवा है—कुछ करें! जीवन रूपांतरित हो कुछ, कुछ अनुभव में आये।
यह जो दूसरा वर्ग है, इसमें जितने लोग रह
जायेंगे, इसमें से पचास प्रतिशत रुकेंगे पचास प्रतिशत खो
जायेंगे। क्योंकि करना कोई आसान बात नहीं है, सुनना तो
बहुत आसान है। तुम्हें कुछ करना नहीं है; मैं बोला,
तुमने सुना, बात खत्म हुई। करने में
तुम्हें कुछ करना होगा, सफलता सुनिश्चित नहीं है, जब तक कि त्वरा न हो, तीव्रता न हो, दाव पर लगाने की हिम्मत न हो, साहस न हो—सफलता
आसान नहीं है। कुनकुने—कुनकुने करने से तो सफलता नहीं मिलेगी, सौ डिग्री पर उबलना होगा। उतना साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं, जो नहीं जुटा पाते उतना साहस, वे सोचने लगते
हैं कि कुछ है नहीं, करने में भी कुछ रखा नहीं है। यह
अपने मन को समझाना है कि करने में कुछ रखा नहीं है। किया है ही नहीं, करने में ठीक से उतरे ही नहीं, उतरे भी तो
किनारे—किनारे रहे, कभी गहरे गये नहीं, जहां डुबकी लगती। भोजन पकाया ही नहीं, ऐसे ही
चूल्हा जलाते रहे, वह भी इतने आलस्य से जलाया कि कभी जला
नहीं, धुआ इत्यादि तो उठा, लेकिन
आग कभी बनी नहीं। तो धुएं में कोई कितनी देर रहेगा? जल्दी
ही आंख आंसुओ से भर जायेगी। मन कहेगा, चलो भी, यहां क्या रखा है? धुआ ही धुआ है।
जहां धुआ है वहां आग हो 'सकती थी, क्योंकि धुआ जहां है वहां आग होगी ही। लेकिन थोड़ा और गहन प्रयास होना
चाहिए था। थोड़ी और तपश्चर्या होनी थी! थोड़ा और श्रम, थोड़ा
और प्रयास। जो नहीं इतना प्रयास कर पाते, पचास प्रतिशत
लोग विदा हो जायेंगे; जो पचास प्रतिशत रह जायेंगे,
वे तीसरी सीढ़ी में प्रवेश करते हैं।
तीसरी सीढ़ी शिष्य की सीढ़ी है। शिष्य का अर्थ
होता है? अब
अनुभव में रस आया, अब सदगुरु की पहचान हुई। अनुभव से ही
होती है, सुनने से नहीं होगी। सुनने से तो इतना ही पता
चलेगा—कौन जाने, बात तो ठीक लगती है, लेकिन इस व्यक्ति का अपना अनुभव हो कि न हो, कि
केवल शास्त्रों की पुनरुक्ति हो! कौन जाने सदगुरु सदगुरु है भी या नहीं, या केवल पांडित्य है? यह तो तुम्हें स्वाद
लगेगा तभी स्पष्ट होगा कि जिसके पास तुम आये हो, वह पंडित
नहीं है, या कि पंडित ही है? स्वाद
में निर्णय हो जायेगा, तुम्हारा स्वाद ही तुम्हें कह
देगा। अगर सदगुरु है तो तीसरी घड़ी आ गयी, तीसरी सीढ़ी आ गयी;
तुम शिष्य बनोगे।
शिष्य का अर्थ है : समर्पित। अब शंकाएं न
रहीं। अब पुराना ऊहापोह न रहा। अब भटकाव न रहा। अब एक टिकाव आया जीवन में। अब नाव
पर सवार हुए।
जो लोग शिष्य हो जाते हैं। इनमें से नब्बे
प्रतिशत रुक जायेंगे, दस प्रतिशत इनमें से भी छिटक जायेंगे। क्योंकि जैसे—जैसे गहराई बढ़ती है
साधना की, वैसे—वैसे कठिनाई भी बढ़ती है। शिष्य को
अग्नि—परीक्षाएं देनी होंगी, जो कि साधक से नहीं मांगीं
जातीं, और विद्यार्थी से तो मांगने का सवाल ही नहीं है।
अग्नि—परीक्षा तो सिर्फ शिष्य की होती है। जो इतने दूर चला आया है, उसी पर गुरु अब कठोर होता है। कठोर होना पड़ेगा। चोट गहरी करनी होगी।
अगर किसी पत्थर की मूइrात बनानी हो तो छैनी उठाकर पत्थर
को तोड़ना ही होगा। बहुत पीड़ा होगी, क्योंकि तुम्हारे ऊपर
जो आवरण हैं, वे सदियों पुराने हैं। तुम्हारे ऊपर जो
अज्ञान की पर्तें हैं, वे कपड़ों जैसी नहीं हैं कि निकालकर
फेंक दीं और नग्न हो गये, वे चमड़ी जैसी हो गयी हैं।
उन्हें उधेड़ना है, सर्जरी है।
तो दस प्रतिशत लोग तीसरी सीढ़ी से भी भाग
जायेंगे। जो नब्बे प्रतिशत तीसरी सीढ़ी पर टिक जायेंगे, जो अग्नि—परीक्षा से
गुजरेंगे, वे चौथी सीढ़ी पर प्रवेश करते हैं, जो कि अंतिम सीढ़ी है, वह भक्त की है। शिष्य और
गुरु में थोड़ा—सा भेद रहता है। समर्पण तो होता है शिष्य की तरफ से, लेकिन समर्पण शिष्य की ही तरफ से होता है। अभी समर्पण में भी थोड़ा—सा
अहंभाव जीवित होता है कि मैंने समर्पण किया, मेरा समर्पण!
चौथी सीढ़ी पर 'मैं' भाव बिलकुल
शून्य हो जाता है। अब भक्ति जगी, अब प्रेम जगा। अब गुरु
और शिष्य अलग— अलग नहीं हैं। इस सीढ़ी से फिर कोई भी जा नहीं सकता। जो यहां तक
पहुंच गया, उसका वापिस लौटना नहीं होता।
इसलिए बहुत आयेंगे, बहुत जायेंगे। जितने लोग
आयेंगे उतनी ही अधिक संख्या में जाएंगे भी। इस समय मेरे कोई पचहत्तर हजार संन्यासी
हैं सारी पृथ्वी पर। अब इनमें से दस—पांच छिटकेंगे, भागेंगे
तो कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं है, कोई चिंता की बात भी
नहीं है। ये पचहत्तर हजार कल पचहत्तर लाख हो जायेंगे तो और भी ज्यादा हटेंगे और
छिटकेंगे। यह काम जितना बड़ा होगा, उतने ही बड़े काम के साथ
उतने ही लोग छिटकेंगे। स्वाभाविक है यह अनुपात रहेगा। विद्यार्थियों में से नब्बे
प्रतिशत भाग जायेंगे। साधकों में से पचास प्रतिशत भाग जायेंगे। शिष्यों में से दस
प्रतिशत भाग जायेंगे। सिर्फ भक्तों में से जाना नहीं होता।
लेकिन भक्त तक आते—आते लंबी यात्रा है, जैसे कोई हिमालय चढ़े।
ऊंची चढ़ाई है, बहुत पसीना होगा, ऋत
थकान होगी, दम भर आयेगी। और जो भी भागेगा, उसकी भी मजबूरी है। जब वह भागता है तो उसकी मजबूरी भी समझो, मैं उसकी मजबूरी समझता हूं। जैसे तुमने पूछा है कि विजयानंद और महेश
आपके विरोध में कहते हैं; कहना ही पड़ेगा। क्योंकि जो भाग
गया वह यह तो नहीं कहेगा कि मैं भाग आया अपनी कमजोरी से; कि
मैं योग्य नहीं था, कि मैं अपात्र था, कि मेरी क्षमता छोटी पड़ गयी, कि पहाड़ ऊंचा था;
मैंने सोचा था कि छोटा टीला है, चढ़
जाऊंगा; और निकला गौरीशंकर। मैं नहीं चढ़ पाया, ऐसा तो कोई नहीं कहेगा भागा हुआ। उसको अपने अहंकार की रक्षा भी करनी
होगी न! तो कोई यह तो नहीं कहेगा कि मैं हार गया इसलिए आ गया हूं। उस अहंकार की
सुरक्षा के लिए मेरे विरोध में बोलना शुरू करना ही पड़ेगा। पीड़ा भी होगी, क्योंकि झूठ दिखाई पड़ेगा।
तो विजयानंद लोगों से मेरे पास खबर तो भेजते
हैं कि भगवान को मेरे प्रणाम कह देना,
लेकिन मेरे खिलाफ भी बोलते रहते हैं। एक द्वंद्व पैदा हो गया।
भीतर से जानते हैं कि अपनी कमजोरी.. नहीं चल सके साथ। तो मुझे प्रणाम भी भेजते
रहते हैं और मेरे खिलाफ वक्तव्य भी देते रहते हैं। मेरे खिलाफ वक्तव्य देने पड़ेंगे,
क्योंकि लोग पूछते हैं कि आपने छोड़ा क्यों? अब दो ही उपाय हैं : या तो गुरु गलत रहा हो या शिष्य गलत रहा हो।
स्वाभाविक है, इतनी हिम्मत ही अगर होती कि मैं गलत हूं तो
जाने की जरूरत ही न पड़ती, भागने का सवाल ही न उठता। इतनी
हिम्मत नहीं थी, तो अब रक्षा तो करनी होगी।
इस बात को खयाल में लेना। जब तुम संन्यास
लेते हो तो तुम मेरे पक्ष में बोलना शुरू कर देते हो। जरूरी नहीं है कि तुम मेरे
पक्ष में बोल रहे हो। संभावना यही है कि अब तुमने संन्यास लिया तो मेरे पक्ष में
बोलना ही पड़ेगा। क्योंकि नहीं मेरे पक्ष में बोलोगे तो लोग कहेंगे : पागल हो, फिर संन्यास क्यों लिया?
तुम्हें अपनी आत्मरक्षा के लिए बोलना पड़ेगा मेरे पक्ष में।
तो तुम जब मेरे पक्ष में बोलते हो तो जरूरी
नहीं है कि मेरे पक्ष में ही बोलते हो,
बहुत संभावना तो यही है कि तुम अपने अहंकार की रक्षा के लिये
बोलते हो... कि हा! मेरे सदगुरु पूर्ण सदगुरु हैं, कि वे
परमात्मा को उपलब्ध हैं। तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम्हें क्या पता होगा अभी?
जब तक तुम उपलब्ध न हो जाओ, तुम्हें
कैसे पता हो सकता है? लेकिन तुम्हें मेरे पक्ष में बोलना
ही पड़ेगा, मेरी स्तुति करनी पड़ेगी। उसी स्तुति में तुम
अपने अहंकार की रक्षा कर सकते हो। तुम्हें सारे संदेह अपने भीतर से दबा देने होंगे,
अचेतन में फेंक देने होंगे। नहीं कि संदेह नहीं उठेंगे, इतनी आसानी से संदेह थोड़े ही जाते हैं कि तुम आये, संन्यस्त हो गये और संदेह मिट गये! काश, इतना
आसान होता! संदेह वर्षों तक पीछा करेंगे। संदेह लौट—लौटकर आ जायेंगे। मगर तुम किसी
से कह न सकोगे; कहोगे तो भद्द होगी। अगर किसी से कहोगे कि
मुझे शक है कि मेरा गुरु गुरु है भी या नहीं, तो लोग
कहेंगे कि फिर तुम गुरु को स्वीकार क्यों किये हो? फिर
किस लिये गैरिक वस्त्र धारण किये हैं, फिर क्यों यह माला,
फिर क्यों यह स्वांग रचाया है? अब तुम
बड़ी मुश्किल में पड़े, अब तुम बडी अड़चन में पड़े।
तो विजयानंद पांच साल मेरे पक्ष में बोलते
रहे, अब पचास
साल मेरे खिलाफ बोलना पड़ेगा। वे सब जो पांच साल में दबाये हुए संदेह थे, सब उभरकर आयेंगे। और अब रक्षा करनी होगी, क्योंकि
वे ही लोग जो कल कहते थे कि क्या तुम पागल हो गये हो संन्यास लेकर, अब कहेंगे कि हमने पहले ही कहा था ना कि तुम पागल हो गये हो! अब इनको
जवाब देना होगा। तो अब बड़ी अड़चन खड़ी होगी। उस अड़चन से बचाव करना होगा। बचाव एक ही
है कि हम भ्रांति में पड़ गये थे। या बचाव यह है कि कुछ—कुछ बातें ठीक थीं, उन्हीं बातों के कारण हम संन्यस्त हो गये थे। फिर जब संन्यस्त हुए तब
धीरे— धीरे पता चला कि कुछ—कुछ बातें गलत हैं। फिर धीरे—धीरे जैसे—जैसे अनुभव बढ़ा,
पता चला कि बिलकुल गलत है। ऊपर—ऊपर की बातें ठीक हैं, भीतर— भीतर बिलकुल गलत है।
यह आत्मरक्षा है। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
इससे जरा भी चिंतित मत होना, इसे समझो जरूर।
महेश तो विद्यार्थी की हैसियत से आगे कभी
बढ़े नहीं। कुतूहलवश आ गये थे। विजयानंद के साथ ही आ गये थे, साथ ही चले भी गये। आना
एक संयोगमात्र था। न तो आये थे न गये, मेरे हिसाब में न
तो कभी आये, न गये। मैंने हिसाब नहीं रखा महेश का। ऐसे
लोगों का हिसाब नहीं रखना पड़ता, ये तो नदी में बहती हुई
लकड़ियां हैं। लग गयीं किनारे तो कोई किनारा यह सोचने लगे कि मेरी तलाश में आकर लग
गयी हैं तो गलती हो जायेगी। क्योंकि अभी आयेगा हवा का झोंका और लकडी बह जायेगी।
विजयानंद के साथ ही आ गये थे। जब मैंने महेश को संन्यास दिया था तो विजयानंद मौजूद
थे। महेश को संन्यास देने के पहले मैंने कहा : विजयानंद तुम भी पास आकर बैठ जाओ,
ताकि सहारा रहे..। पास बिठा लिया था विजयानंद को, ठीक बगल में महेश के, और विजयानंद ने उनकी पीठ
पर हाथ रख लिया था, तब मैंने उन्हें संन्यास दिया।
क्योंकि मैं महेश को तो जानता नहीं कि इनका कोई मूल्य है, कि ये कोई जिज्ञासा से आये हैं। यह तो विजयानंद को कुछ हुआ है... ये तो
विजयानंद के शिष्य हैं, मेरे नहीं।
तो स्वाभाविक था कि जब विजयानंद जायेंगे तो
महेश भी जायेंगे। इनका कोई मूल्य नहीं. है। विद्यार्थी की हैसियत से उनका आगे कभी
जाना हुआ नहीं। विजयानंद ने जरूर चेष्टा की थी। और साधक की स्थिति आ गयी थी, थोड़ी और हिम्मत रखते तो
शिष्य की घटना भी घटती। मगर अड़चनें आ गयीं, अड़चनें आती
हैं। मानवीय अड़चनें हैं। समझना, तुमको भी आ सकती हैं,
इसलिए उत्तर दे रहा हूं। सभी को आ सकती हैं। विजयानंद ख्यातिलब्ध
हैं, बड़े फिल्म निर्देशक हैं, सारा
देश उन्हें जानता है—वह अहंकार अड़चन बनता रहा। आकांक्षा थी कि उनको मैं ठीक उसी
तरह व्यवहार करूं—एक विशिष्ट व्यक्ति की तरह—वी. वी. आई. पी.। वह मुझे तोड़ना पड़ेगा,
नहीं तो साधक कभी शिष्य न बनेगा। उसे मैंने तोड़ना शुरू कर दिया।
रोज—रोज उन पर चोटें पडने लगीं। पहले वे जब भी आते थे, जिस
क्षण चाहते थे मिलने को आ जाते थे। अब उनको भी समय लेना पड़ता—दो दिन बाद, तीन दिन बाद, सात दिन बाद..। पीड़ा होने लगी,
कष्ट होने लगा। अड़चन होने लगी कि उनके साथ भी और दूसरे संन्यासियों
जैसा ही व्यवहार हो रहा है, विशिष्ट व्यवहार नहीं हो रहा
है।
पहले मैं तुम्हारी बहुत चिंता लेता हूं। वह
तो कांटे पर आटा है। मगर आटा ही आटा मछली को खिलाये जायेंगे तो मछली फसेगी कब? जल्दी ही आटे के भीतर का
छिपा काटा प्रगट होगा। जब कांटा प्रगट होगा तब अड़चन होती है। जब मैं विजयानंद के
साथ ठीक वैसा व्यवहार करने लगा जैसा सब के साथ—जो कि जरूरी था, यही सीढ़ी अगर वे गुजर गये होते, अगर उन्होंने
स्वीकार कर लिया होता कि संन्यस्त जब हुआ तो विशिष्टता छोड देनी है, अपने को भिन्न मानने का कोई कारण नहीं है। किसी का नाम जाहिर है किसी
का नाम नहीं जाहिर है, इससे कोई फर्क थोड़े ही पड़ता है,
इससे कोई जीवन की अंतर्दशा थोड़े ही बदलती है। तुम्हें कितने लोग
जानते हैं इससे तुम्हारे पास ज्यादा आत्मा थोड़े ही होती है, न ज्यादा ध्यान होता है, न ज्यादा समाधि होती
है। यह भी हो सकता है, तुम्हें कोई न जानता हो और
तुम्हारे भीतर परम घटा हो। जानने न जानने से इसका कुछ लेना—देना नहीं है।
फिर जैसा मैंने कहा कि जैसे—जैसे तुम्हारी
सीढ़ी आगे बढ़ेगी; वैसे—वैसे मैं कठोर होता जाऊंगा, वैसे—वैसे
तुम्हें आग में डाला जायेगा, तभी तो निखरोगे, तभी तो कुंदन बनोगे। कुम्हार घड़े को बनाता है तो थापता है मिट्टी को,
बड़ा सम्हालता है। ऊपर से चोट भी करता है, भीतर से हाथ का सहारा भी देता है। लेकिन अहंकारी को चोट ही दिखाई पड़ती
है, भीतर हाथ का सहारा नहीं दिखाई पड़ता। निर— अहंकारी को
भीतर हाथ का सहारा दिखाई पड़ता है, चोट की वह फिक्र नहीं
करता। वह कहता है एक हाथ चोट मार रहा है कुम्हार का। दूसरा हाथ सहारा दे रहा है।
यही तो रास्ता है घड़े के बन जाने का। फिर जब घड़ा बन जाता है तो कच्चे घड़े को तो
कुम्हार सम्हालकर रखता है, फिर जल्दी ही आग में डालेगा।
और घड़ा अगर चिल्लाने लगे कि इतना सम्हाला मुझे.. इतना होशियारी से रखते थे
सम्हाल—सम्हालकर कि टूट न जाऊं, फूट न जाऊं और अब आग में
डालते हो? अगर कच्चे घड़ों में भी विजयानंद जैसे लोग होते,
भाग खड़े होते। वे कहते हम चले...। मगर घड़े कहीं भाग नहीं सकते,
इसलिये सुविधा है। मैं जिंदा घड़ों पर काम करता हूं इसलिए कभी—कभी
भाग भी जाते हैं। जब आग में डालने के दिन करीब आने लगे तो वे घबड़ा गये। साधक की
हैसियत में ही भाग गये।
कुछ लोग शिष्य की हैसियत तक में जाकर भाग
जाते हैं, क्योंकि
जो आखिरी चोट है, वह तुम्हारे अहंकार का परिपूर्ण विसर्जन
है। वह तुम्हारे व्यक्तित्व का पूरी तरह लीन हो जाना है गुरु में, जैसे बूंद सागर में लीन हो जाये। उतना दाव जो लगा सकता है लगा सकता है,
अन्यथा कठिनाई हो जाती है।
और,
जो भी जायेगा छोड्कर, वह विरोध में
बातें करेगा, निंदा भी करेगा। यह सब स्वाभाविक है,
इसकी चिंता मत लेना। जहा लाखों शिष्य होने वाले हैं, वहां इस तरह के हजारों लोग होंगे।
मरो है जोगी मरो
ओशो
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