महावीर कहते हैं, जगत का अनुभव तीन खंडों में तोड़ा जा सकता है।
जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, “The Known’। जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि हैं–ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है–ज्ञान।
वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी नासापुटों को भर रही है। ताजी ताजी भूमि से सुवास आ रही है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है–आंख के बिना हो ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है–हरापन वृक्ष और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं होते–हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे–रंगहीन। गुलाब का फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, तब गुलाबी होता है। “गुलाबी’ तुम्हारे और गुलाब के फूल के बीच का संबंध है।
तो दूसरा जगत है: ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं–वे ज्ञान की पकड़ में लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं।
महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं–ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: “यह जाननेवाला कौन है!’ जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं: “यह जानी जानेवाली चीज क्या है!’ जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह फिक्र करते हैं: यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन हूं, जो जान रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल गुलाबी हैं; जिसके लिए चांदत्तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं!
जिन सूत्र
ओशो
जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, “The Known’। जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि हैं–ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है–ज्ञान।
वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी नासापुटों को भर रही है। ताजी ताजी भूमि से सुवास आ रही है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है–आंख के बिना हो ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है–हरापन वृक्ष और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं होते–हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे–रंगहीन। गुलाब का फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, तब गुलाबी होता है। “गुलाबी’ तुम्हारे और गुलाब के फूल के बीच का संबंध है।
तो दूसरा जगत है: ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं–वे ज्ञान की पकड़ में लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं।
महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं–ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: “यह जाननेवाला कौन है!’ जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं: “यह जानी जानेवाली चीज क्या है!’ जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह फिक्र करते हैं: यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन हूं, जो जान रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल गुलाबी हैं; जिसके लिए चांदत्तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं!
जिन सूत्र
ओशो
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