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Tuesday, September 29, 2015

चौथा प्रश्न:

मैं बड़ी उलझन में हूं। तीस अक्ट्रबर को मेरी प्यारी छोटी बहन ज्योति का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख और परेशानी महसूस कर रहा हूं ध्यान तथा प्रवचन सुनने से थोड़ी सी शांति की अनुभूति होती है परंतु इतने सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम रोम में उसकी याद सताती है। ऐसे संयोग में मुझे क्या करना चाहिए? प्रभु आप कृपया कुछ मार्गदर्शन देने की अनुकंपा करें।

कबीर! जाना है और सबको जाना है। हम सब पंक्तिबद्ध जाने को तैयार खड़े हैं कब किसका बुलावा आ जाये! बहन गयी तुम्हारी, चोट लगी तुम पर। चोट इसीलिए लगी कि तुमने यह मानकर जिंदगी चलायी थी कि बहन कभी जायेगी नहीं। बहन के जाने से चोट नहीं लगी, तुम्हारी मान्यता भ्रांत थी; मान्यता के टूटने से चोट लगी। काश, तुमने जाना ही होता कि सब को जाना है, तो चोट न लगती! तुमने झूठी मान्यता बना रखी थी कि बहन कभी न जायेगी। किसी अचेतन में चुपचाप तुम इस भाव को पालते पोसते रहे थे कि बहन कभी न जायेगी। इतनी प्यारी बहन कहीं जाती है! लेकिन सबको जाना है। 

अब तुम सोचते हो कि बहन के जाने के कारण तुम विक्षुब्ध हो, तो फिर गलत सोच रहे हो। धारणा टूट गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। तुम्हारी मान्यता उखड़ गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। यह बहन का जाना तुम्हारे सारे तारतम्य को तोड़ गया, इसलिए विक्षुब्ध हो। अब भी सोचो, अब भी जागो। तुम्हें भी जाना है। पिता भी जायेंगे, मां भी जायेगी, भाई भी जायेंगे, मित्र भी जायेंगे, सभी को जाना है। बहन तो जैसे राह दिखा गयी। धन्यवाद मानो उसका, अनुग्रह स्वीकार करो कि अच्छा किया कि तू गयी और हमें चेता गयी। तो जाने की तैयारी हम करें।

दुनिया में दो तरह की शिक्षाएं होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बडा अधूरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते हैं, कालेज भेजते हैं, युनिवर्सिटी भेजते हैं, मगर एक ही तरह की शिक्षा है वहा—कैसे जीयो? कैसे आजीविका अर्जन करो? कैसे धन कमाओं! कैसे पद प्रतिष्ठा पाओ। जीवन के आयोजन सिखाते हैं। जीवन की कुशलता सिखाते हैं। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा है और वह है कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिलकुल खो गयी है। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं।

इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बांटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरु के पास बैठना। जीवन को कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन : जो गुरु के चरणों में बैठकर सीखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेंगे। उनके गुरु के गृह से लौटने के दिन करीब आने लगेंगे। अब बच्चे घर लौटेंगे गुरु—गृह से। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जीये। और जब बच्चे घर आ गये, फिर भी पिता और बच्चे पैदा करता चला जाये, तो यह अशोभन समझा जाता था; यह अशोभन है। अब बच्चे बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से ऊपर उठो।

तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। वानप्रस्थ का अर्थ बड़ा प्यारा है; जंगल की तरफ मुंह इसका अर्थ होता है। अभी जंगल गये नहीं, अभी घर छोड़ा नहीं; लेकिन घर की तरफ पीठ और जंगल की तरफ मुंह यह वानप्रस्थ का अर्थ होता है। चले—चले, तैयार… जैसे कभी तुम यात्रा पर जाते हो, बिस्तर बोरिया सब बांध कर बस बैठे हो कि कब आ जाये बस, कि कब आ जाये गाड़ी यह वानप्रस्थ। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ, ताकि अगर तुम्हारे बेटों को तुम्हारी कुछ सलाह की जरूरत हो तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता, लेकिन बेटे अभी नये नये गुरुकुल से लौटे हैं, अभी उन्हें बहुतसी व्यावहारिक बातें पूछनी होंगी, तांछनी होंगी। तुम्हारा मार्गदर्शन शायद जरूरी हो। तो अब पीठ कर के घर की तरफ रुके रहना कि ठीक है, कुछ पूछना हो तो पूछ पीछ लो।

फिर पचहत्तर वर्ष के तुम जब हो जाओगे, तो सब छोड़ कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम संन्यास था। पच्चीस वर्ष जीवन के प्रारंभ में, जीवन की तैयारी; और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष, मृत्यु की तैयारी।

आज दुनिया से मृत्यु की तैयारी खो गयी है। लोग मृत्यु की बात ही नहीं करना चाहते। मृत्यु की बात से ही मन तिलमिला जाता है, मन डरने लगता है। रास्ते पर निकलती अर्थी देखकर तुम बेचैन नहीं हो गये हो? वह बेचैनी इस बात की खबर है कि तुम्हें याद आ रही है, कि आज नहीं कल मेरी अर्थी भी उठेगी! यही लोग जो दूसरे को लिये जा रहे हैं, कल मुझे भी मरघट पहुंचा आयेंगे। आज कोई और चढ़ा है चिता पर, कल मैं भी चढूंगा।

ऐसा अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाये, तो क्रांति हो जाये! मगर हम बड़े चालबाज हैं। हम इसको छिपा लेते हैं। हम धुआं खड़ा कर लेते हैं। अब कबीर, तुम धुआं खड़ा कर रहे हो।

तुम कहते हो : ज्योति मेरी बहन का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख में हूं बहुत परेशानी में हूं सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम  रोम में याद सताती है।

तुम झुठला रहे हो। तुम अपनी सारी बात को ज्योति पर आरोपित कर रहे हो कि न तू गयी होती, न मैं दुखी होता। तू क्या चली गयी, मुझे दुख में छोड़ गयी। तुम यह बात भुलाने की कोशिश कर रहे हो कि दुख ज्योति के जाने का नहीं है, दुख इस बात का है कि जाना पड़ेगा। दुख इस बात का है कि यह ज्योति सजग कर गयी तुम्हें कि मौत आती है; मेरी आ गयी, तुम्हारी भी आती होगी। देखो, मेरी आ गयी और मैं तो तुमसे कम उम्र की थी!
अब तुम इसको झुठलाओ मत।

तुम कहते हो कि प्रवचन सुनता हूं ध्यान करता हूं थोड़ी शांति अनुभव होती है।

वह शांति नहीं है, सांत्वना है। प्रवचन सुनने में भूल जाते होओगे, याद न रह जाती होगी। यह शांति नहीं है, यह तो विस्मरण है। यह तो वैसे ही है जैसे कोई सिनेमा में जाकर बैठ गया, तो दो घड़ी के लिए उलझ गया सिनेमा की कहानी में, तो अपनी कहानी भूल गयी; कि पढ्ने लगा कोई उपन्यास, जासूसी, सनसनीखेज, कि लग गया चित्त उसमें, तो अपनी चिंता भूल गयी; कि पी ली शराब, कि डूब गये थोड़ी मूर्च्छा में, कि भूल गयी अपनी आपाधापी। मगर कितनी देर? फिर लौट आओगे। आना ही पड़ेगा।

मरो है जोगी मरो 

ओशो 

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