शरीर के संबंध में यह सच है कि ठीक निदान हो तो पचास प्रतिशत इलाज हो
गया; लेकिन मन के संबंध में तो और अदभुत बात है, वहा तो निदान ही सौ
प्रतिशत इलाज है। शरीर के संबंध में पचास प्रतिशत, मन के संबंध में सौ
प्रतिशत। क्योंकि मन की बीमारियां तो भांति की बीमारियां हैं, जैसे किसी ने
दो और दो पांच गिन लिया, फिर सारा हिसाब गलत हो जाता है। मन की बीमारी कोई
वास्तविक बीमारी नहीं है; भ्रांति है, भूल है। समझ में आ गया कि दो और दो
चार होते हैं, उसी क्षण सब भ्रांति मिट गई।
मन की बीमारी तो ऐसी है जैसे मरुस्थल में किसी को सरोवर दिखाई पड़ गया। वह धोखा है।
वह तुम्हारी प्यास से ही पैदा हुआ है। वह तुम्हारी प्यास का ही देखा गया
सपना है। तुम इतने प्यासे थे कि मान लिया। तुम इतने घबराये थे पानी के लिए
कि जरासा सहारा मिल गया कि तुमने पानी की कल्पना कर ली। भूखा आदमी, कहते
हैं, अगर पूर्णिमा के चाँद को भी देखे तो उसे लगता है रोटी आकाश में तैर रही
है। भूख प्रक्षेपित होती है।
मन की बीमारियां प्रक्षेपण हैं, प्रोजेक्शन हैं। शरीर की बीमारी का तो
आधार है; मन की बीमारी निराधार है। एक बार तुम्हें ठीक—ठीक गणित दिखाई पड़
गया तो फिर ऐसा नहीं है कि मन की बीमारी का निदान होने के बाद तुम पूछोगे,
अब औषधि क्या? निदान ही औषधि है।
सुकरात का बड़ा प्रसिद्ध वचन है. ज्ञान ही मुक्ति है।
जीसस की भी बड़ी प्रसिद्ध घोषणा है सत्य को जान लो और सत्य तुम्हें मुक्त
कर देगा। फिर ऐसा नहीं कि सत्य को जानने के बाद तुम्हें मुक्ति के लिए कोई
उपाय करना पड़ेगा; जानते ही सत्य को, मुक्ति हो जाती है।
इसलिए तो महावीर ने यहां तक कहा है कि अगर तुम सत्य को जानने वाले की
बात ठीक से सुन लो तो श्रवण से ही मुक्ति हो जाती है। इसलिए एक तीर्थ का
नाम: श्रावक। सुन कर ही जो मुक्त हो जाता है, वह श्रावक है।
जो सुन कर मुक्त
नहीं होता और जिसे कुछ करना पड़ता है, वह साधु। मेरे हिसाब में साधु श्रावक
से नीची स्थिति में है; ऊंची स्थिति में नहीं। सुन कर ही मुक्त न हो सका,
कुछ करना भी पड़ा। उसका बोध प्रगाढ़ नहीं है। सुन कर ही न समझ सका, कुछ करना
पड़ा, तब समझ में आया। समझ बहुत गहरी नहीं है।
समझ गहरी होती तो सुन कर समझ
लेता। समझ गहरी होती तो महावीर को देख कर समझ लेता। देखना काफी था। आंख खोल
कर महावीर को देख ले, आंख खोल कर बुद्ध को देख ले या आंख खोल कर कृष्ण को
देख ले; क्या बाकी रह जाता है? खुली आंख कि सब साफ हो जाता है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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