बुद्ध के बाद पच्चीस सौ साल में फिर से एक बार एक घटना घट रही है। बुद्ध
के समय में ऐसा हुआ था कि सारे पंडित पुरोहित, सारे साधु संत, सारे
महानुभाव, महात्मा, बुद्ध के खिलाफ हो गए थे। सारे के सारे! एक बात पर राजी
हो गए थे कि बुद्ध गलत हैं।
ऐसा फिर हो रहा है। एक बात पर तुम्हारे साधु संत, महानुभाव महात्मा,
पंडित पुरोहित राजी होते जा रहे हैं: मेरे विरोध में एकदम राजी हैं। उनके
आपस में कितने ही झगड़े हों, आपस में कितने ही विवाद हों ….. अब वेदांती और
आर्यसमाजी का आपस में बहुत विवाद है, लेकिन एक संबंध में कम से कम वे राजी
हैं, मेरे विरोध में राजी हैं। मैं इससे भी खुश होता हूं कि चलो इतनी एकता
आयी, यह भी क्या कम है? कुछ एकता तो आयी; किसी बहाने सही! मैं निमित्त बना,
यह भी अच्छा; है यह भी सौभाग्य। चलो, इसी कारण वे इकट्ठे हो जाएं।
तुम कहते हो, एक सज्जन ने कहा कि मेरा….. उनका सब अललटप्पू है। यही तो
उन्होंने बुद्ध के लिए कहा है। यही उन्होंने महावीर के लिए कहा है। कुछ नई
बात वे नहीं कह रहे हैं। जो बात उनकी समझ में नहीं आती वह अललटप्पू मालूम
होती है।
नास्तिक यही बात तो आस्तिकों के संबंध में कहते हैं कि ईश्वर इत्यादि सब
अललटप्पू। है ही नहीं; सब बकवास है। चार्वाकों ने क्या कहा है? चार्वाकों
ने यही तो कहा है कि यह सब पंडितों पुरोहितों की बकवास है, अललटप्पू है।
कहीं कोई ईश्वर नहीं है। मरने के बाद कोई लौटना नहीं है। पागलो, इनकी बातों
में मत पड़ना। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। डरो ही मत। ऋण भी लेकर पीना पड़े तो
घी पियो क्योंकि लौटकर कौन आता है! किसको चुकाना है! कौन चुकानेवाला, कौन
लेनेवाला, कौन देने वाला? सब मर गए, सब मिट्टी में मिल गए। पंडित पुरोहितों
की बकवास में मत पड़ो। न कोई पुण्य है, न कोई पाप है, सब अललटप्पू है।
यही तो चार्वाक ने कहा। चार्वाकों की समझ में नहीं बात आयी परलोक की।
यही तो माक्र्स ने कहा है धार्मिकों के संबंध में। यही तो फ्रायड ने कहा है
धार्मिकों के संबंध में।
जो बात जिसकी समझ में नहीं आती है, वह सोचता है कि होनी ही नहीं चाहिए।
क्योंकि यह तो मानने को तैयार ही नहीं होता कि कोई बात ऐसी भी हो सकती है।
जो उसकी समझ के आगे हो। अपनी समझ और किसी बात से छोटी पड़ती हो ऐसा तो
अहंकार मानने को राजी नहीं होता। तो दूसरा उपाय यही है कि यह बात ठीक होगी
ही नहीं। यह बात गलत ही होगी। जो मेरी समझ के बाहर है वह कैसे ठीक हो सकती
है? मेरी समझ कसौटी है।
अब तुम कहते हो कि स्वामी मनोहरदास वेदांती हमारे गांव आए। आपके संबंध
में चर्चा होने पर कहने लगे, उनका सब अललटप्पू है। ठीक ही कह रहे हैं।
क्योंकि मैं जिस समाधि की बात कर रहा हूं, जिस शून्य की बात कर रहा हूं,
मैं जिस श्रद्धा की बात कर रहा हूं, वह उनकी समझ में नहीं आयी होगी। आ जाती
तो अपने को वेदांती कहलवाते? आ जाती तो किताबों से बंधते? आ जाती तो
विशेषण लगाते?
जिसकी बात समझ में आ जाएगी उसके सारे विशेषण गिर जाएंगे। जो शून्य को
समझ लेगा, अब शून्य पर कैसे विशेषण लगाओगे? शून्य वेदांती होगा कि
आर्यसमाजी होगा? शून्य तो बस शून्य होगा। शून्य में भेद नहीं होगा। शून्य
जैन होगा कि हिंदू होगा? शून्य तो बस शून्य होगा।
नाम सुमिर मन बाँवरे
ओशो
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