‘तप’ शब्द को सुनकर ही याद आती है उन लोगों की जो अपने को कष्ट देने में कुशल हैं।
‘तप’ से तुम्हारे मन में क्या खयाल उठता है? ‘तप’ शब्द तुम्हारे भीतर कोनसी
आकृतियां उभारता है? आत्मदमन, आत्मपीडन। लेकिन तप से इसका कोई संबंध नहीं
है।
दुनिया में दो तरह के हिंसक हैं। एक वे जो दूसरों को सताते हैं। ये छोटे
हिंसक हैं। क्योंकि दूसरे कों तुम सताओगे, तो दूसरा कम से कम आत्मरक्षा तो
कर सकता है। प्रत्युत्तर तो दे सकता है। भाग तो सकता है! पैरों पर गिरकर
गिड़गिड़ा तो सकता है! कोई उपाय खोज सकता है। रिश्वत दे सकता है। चापलूसी कर
सकता है। सेवा कर सकता है। गुलाम हो सकता है।
और दूसरे तरह के वे आत्महिंसक हैं, जो खुद को सताते हैं। वहां कोई बचाव
नहीं है। वह हिंसा बड़ी है। अब तुम खुद ही अपने को सताओगे, तो कोन तुम्हें
बचायेगा! कोन प्रतिकार करे? अपना ही हाथ अगर आग में जलाना हो; तुमने ही अगर
तय किया हो आग में जल जाने का,तो फिर बचना मुश्किल है!
तप का ठीक ठीक अर्थ इतना ही होता है कि जीवन में बहुत दुख हैं, इन दुखों को सहजता से, धैर्य से, संतोष से, अहोभाव से अंगीकार करना। और दुख पैदा करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कुछ कम है! पांव पांव पर तो पटे पड़े हैं। दुख ही दुख ही तो हैं चारों तरफ। लेकिन इन दुखों को भी वरदान की तरह स्वीकार करने का नाम तप है।
सुख को तो कोई भी वरदान समझ लेता है। दुख को जो वरदान समझे, वह तपस्वी है। जब बीमारी आये, उसे भी प्रभु की अनुकम्पा समझे; उससे भी कुछ सीखे। जब दुर्दिन आयें, तो उनमें भी सुदिन की संभावना पाये। जब अंधेरी रात हो, तब भी सुबह को न भूले। अंधेरी से अंधेरी बदली में भी वह जो शुभ्र बिजली कौंध जाती है, उसका विस्मरण न हो।
कुछ दुख आरोपित करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कम हैं? इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि ‘संसार को छोड़ो; जंगल में जाओ; अपने को सताओ।’ संसार में कोई दुखों की कमी है, कि तुम्हें जंगल जाना पड़े! यहां तरह तरह के दुख हैं। जीवन चारों तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता, वैमनस्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष-इन सबसे भरा है। एक दुश्मन नहीं, हजार दुश्मन हैं। जिनको तुम दोस्त कहते हो, वे भी दुश्मन हैं। कब दुश्मन हो जायेंगे कहना मुश्किल है।
मैक्यावली ने अपनी अद्भुत किताब ‘प्रिंस’ में लिखा है कि अपने दोस्तों से भी वह बात मत कहना, जो तुम अपने दुश्मनों से न कहना चाहो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा जो आज दोस्त है, वह कल दुश्मन हो सकता है।
मैक्यावली पश्चिम का चाणक्य है। दोस्त से भी मत उघाड़ना अपने हृदय को, क्योंकि वह भी नाजायज लाभ उठायेगा किसी दिन। फिर तुम पछताओगे।\
यहां तो सब तरफ कांटे ही काटे हैं, अब और काटो की शैया बनाने की जरूरत क्या है? तुम जिस शैया पर सोते हो रोज, वह कीटों की नहीं? उतने से मन नहीं भरता?
पत्नी और पति तुम्हें कम दुख दे रहे हैं?
मैंने सुना. पति पत्नी में पति के देर से घर लौटने पर झगड़ा हो रहा था। पत्नी बोली, ‘अगर आप आइंदा रात नौ बजे के बाद आयेंगे, तो मैं आपको छोड़कर किसी और से शादी कर लूंगी।’
पति ने कहा, ‘तब तो पड़ोसवाले गुप्ताजी से ही कर लेना!’
पत्नी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, ‘गुप्ताजी से ही क्यों?’
पति ने शांति से उत्तर दिया, ‘मैं उनसे बदला लेना चाहता हूं।’
यहां कुछ कमी है!
एक दोस्त अपने संगी साथी से कह रहा था, ‘बारिश आनेवाली है, मुझे बड़ा डर लग रहा है; मेरी पत्नी बाजार गयी हुई है।
उसके मित्र ने कहा, ‘इसमें डरने की क्या बात है! अरे, बारिश उसे कुछ गला तो न देगी? कोई मिट्टी की तो बनी नहीं! बहुत बारिश आ जायेगी, तो किसी दुकान में घुसकर खड़ी हो जायेगी।’
मित्र ने कहा, ‘इसी का तो डर है। जिस दुकान में घुस जाती है, वहीं उधारी करके आ जाती है!’
इस जिंदगी में तुम दुख तो देखो: कुछ कमी है! तप करने कहां जा रहे हो!
डाक्टर चंदूलाल से कह रहे थे, ‘चंदूलाल, यह कोई पुरानी बीमारी है, जो आपका सुख चैन नष्ट कर रही है।’
चंदूलाल मुंह पर हाथ रखकर अपनी पत्नी की तरफ इशारा करके डाक्टर से बोले, ‘जरा धीरे डाक्टर साहब! वह इधर ही खड़ी हुई है!’
एक पुरुष और एक स्री पार्क में बैठे बहुत जोर जोर से बातें कर रहे थे। अचानक स्त्री उठी और पुरुष को एक चांटा मारकर गुस्से में वहां से चली गई। इतने में पास से गुजरनेवाले व्यक्ति ने वहां बैठे पुरुष से पूछा, ‘वह स्री क्या आपकी पत्नी थी?’
इस पर पुरुष ने बडे तैश में आकर जवाब देते हुए कहा, ‘ और नहीं तो क्या, तुम मुझे इतना बेगैरत इन्सान समझते हो कि मैं किसी ऐरी गैरी स्री से चांटा खा लूंगा?’
कई’ वर्षों के बाद कालेज के दो साथियों की मुलाकात हो गई। और बातचीत का सिलसिला हुआ।’कैसे रहे इतने वर्षों तक?’ ‘कोई खास बात नहीं हुई। कालेज छोड़ने के फौरन बाद शादी कर ली थी।’
‘यह तो बडा अच्छा किया।’
‘नहीं। मेरी पत्नी बहुत लड़ाकू थी।’
‘ ओह! इससे जीवन जहर हो गया होगा?’
‘नहीं। इतना बुरा भी नहीं हुआ। दहेज में पांच हजार रुपये मिले थे।’
‘उससे तो बड़ा फायदा हुआ होगा।’
‘नहीं। उस रकम से मैंने दुकान कर ली। लेकिन बिक्री ही नहीं होती थी।’
‘तब तो बडी मुसीबत रही होगी?’
‘नहीं। बुरा भी नहीं हुआ। युद्धकाल में दुकान बड़े भाव में बेच दी। दस हजार का नगद फायदा हो गया।’
‘यह बहुत अच्छा किया तुमने!’
‘नहीं। इतना अच्छा भी नहीं हुआ। उस रकम से मैंने एक मकान खरीद लिया और मकान में आग लग गई!’
‘यह तो बड़ी बदकिस्मती रही।’
‘नहीं, इतनी बदकिस्मती भी नहीं रही। मेरी पत्नी भी उसमें जल गई!’
यहां जिन्दगी में क्या कमी है!
तप का मेरी दृष्टि में एक ही अर्थ है : जीवन में काटे भी हैं, फूल भी हैं; फूलों का स्वागत तो कोई भी कर लेता है; काटो का भी जो स्वागत कर ले, वह तपस्वी है। कुछ तुम्हें कांटे ईजाद करने की आवश्यकता नहीं है।
यहां दिन भी हैं और रातें भी हैं। कुछ दीये बुझाने की तुम्हें जरूरत नहीं है। दिन को तो स्वभावत: तुम प्रसन्न हो। रात का अंधेरा भी अंगीकार कर लो।
परितोष का नाम तप है। संतोष का नाम तप है।
अनहद में बिसराम
ओशो
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