कहानी अब नर्मदा के पात्र की तरह गहरी हो चली थी: इसके बाद फौरन
पैंतरा बदलकर ओशो कहते है मैं जाता हूं। तू भी मेरे साथ चल। मैंने कहा,
आपकी छोटी गाड़ी है, पहले ही इतने सारे लोग बैठे है, आप निकलो, मैं
पीछे-पीछे आ रहा हूं। तो वे बोले, अच्छा एक काम कर, तेरे बेटे शेखर को
मेरे साथ भेज दे। लेकिन मैं नहीं माना। मेरी यही रट कि मैं आपके पीछे आ रहा
हूं।
ऐसा अक्सर होता है। ओशो की त्रिकालदर्शी आंखे कुछ और ही देखती
है और हम आँख के अंधे उस होनी से बेखबर होकर ओशो से बहस करने लगते है।
लेकिन वे अपनी अहिंसक पारदर्शिता हम पर थोपते नहीं है। उनका आदेश हमेशा
होनी और अनहोनी के बीच एक नाजुक सुझाव की तरह नि:सारित होता है—मानों या न
मानों, यह तुम्हारी स्वतंत्रता है।
आखिर मैं नहीं माना। ओशो जाते-जाते बार-बार जता गए कि चार बजे से
पहले सागर पहुंच जाना। हम एक घंटे के बाद ही निकलने वाले थे। लेकिन मेरे वे
राइटर महोदय न जाने कहां गायब हो गये। लिखना-विखना दूर, वे तो हर दम गांजा
पीकर धुत पड़े रहते थे। उनको ढूँढ़ते-ढूंढते निकलते हम लोगों को देर हो
गई। तीन घंटे बाद हम लोग जैसे-तैसे जीप में बैठे। जीप गेट से निकली, दायी
और मुड़कर मेन रोड पर आयी ही थी कि सामने से एक फूल स्पीड से आती हुई बस
से धड़ाम से टकरा गई। जीप के तो चीथड़े-चीथड़े हो जाने थे लेकिन मैं क्या
देखता हूं, जीप सही सलामत खड़ी है। सिर्फ उसका एक चक्का सूँ करके निकला और
पाँच सौ फिट जाकर दूर गिरा, जीप में जितने लोग थे, किसी को खरोंच तक नहीं
आई। लेकिन बस ढुलकती हुई पुल के नीचे पंद्रह फीट पर जा गिरी। शुक्र है खुदा
का। थोड़ी और नीचे जाती तो पानी में गिर जाती। बस के सब आदमी घायल हो गए।
सब जगह चिल्लोचोंट मच गई। पूरी सड़क खून से रंग गई।
और वहां सागर में चार बजने के बाद ओशो मुझे बार-बार याद कर रहे
थे। रह-रह कर क्रांति से पूछते, सुखराज नहीं आया। सुखराज नहीं आया? उससे
कहा था, चार बजे तक पहुंच जाना। आखिर मैं जब छह बज गये तो ओशो बोले, फंस
गया सुखराज।
उस रात फिर हमारी नींद गायब। वहीं घर, वही जंगल, वैसी ही रात
लेकिन कितना फर्क पड़ गया था। रात इतनी तप रही थी जैसे लपटों में बिठा दिया
हो। नर्क की कहानी सुनते है न। कि वहां कड़ाहों में तलते है, वैसे तले जा
रहे थे हम। सारा वायुमंडल ही उत्तप्त हो गया था। बार-बार ओशो के शब्द
याद आने लगे। ‘’It is not a genius Work”
*** *** *** ***
यह अप्रैल-मई की बात है। और उस बरसात में क्या तमाशा हुआ वह
सुनने जैसी बात है। उस साल नर्मदा में ऐसी बाढ़ आई जैसी कई वर्षों में नहीं
आई थी। हमारा मकान तो नर्मदा के तट पर ही बना था। पानी बढ़ता गया, बढ़ता
गया….इतना बढ़ गया की पुल और बाँध टूट गये। नर्मदा मैया फुफकारती हुई मेरे
आंगन में चली आई। गराज में जितने भी ट्रक, जीपें खड़ी थी, सब एक क्षण में
बह गई। उनके अस्थिर पंजर भी देखने को नहीं मिले।
नर्मदा की बाढ़ की तरह सुखराज जी बहे जा रहे थे, उनको पता नहीं था
कि उस धाराप्रवाह में वे कितना बड़ा सत्य कह रहे थे, ‘’आपको विश्वास हो
या न हो, लेकिन पानी बढ़ते-बढ़ते उस बिंदु तक आ गया जहां ओशो जी का पलंग
बिछा था। बस उस स्थान को छूकर पानी उतरने लगा। मनुष्य को समझने में देर
लग रही है लेकिन नर्मदा को देर नहीं लगी वह जानने में कि कोई बुद्ध यहां
आया था।
उस साल न जाने कैसी विचित्र बाढ आई कि जहां-जहां भी सुखराज जी ने
पूंजी लगाई हुई थी वह सब उस सर्वभक्षी जल में स्वाहा हो गई। कोई 10-12लाख
रूपये शब्दशः: पानी में डूब गये। उस भयंकर विप्लव के बीच खड़े सुखराज जी
के भीतर से सवाल उठा, बोल सुखराज, इसे सुख ले लेता है कि दुःख में। और
दूसरे ही क्षण जैसे कोई आवाज आई, ‘’सुख में कह दे, सुख में।‘’ उस क्षण पता
नहीं कौन घेरे हुये था चारों और से।
यह उत्तर बबूले कि तरह ह्रदय में उठा और सुखराज जी खिलखिलाकर हंस
पड़े। उनकी हंसी सुनकर पत्नी घबराकर दौड़ी चली आई कि कहीं इनके दिमाग में
असर तो नहीं हुआ। उसे देखते ही सुखराज जी ने वही सवाल दोहराया: बोल इसको
सुख में लेती है कि दुःख में।
आप कैसे लेते है।
हम तो मौज मनायेंगे।
तो फिर मैं भी आपके साथ हूं, अर्धांगिनी का समुचित जवाब आया।
और सुखराज जी ने सचमुच हलवा पूड़ी बनवाई , पाँच ब्राह्मणों को
बुलाया और धूमधाम से त्योहार मनाया। ओशो के सतधारा आने का मतलब अब उनको
साफ हुआ। इससे कि ओशो अपना विश्वरूप धारण करते, उन्हें अपने इस नादान
दीवाने को अपने पंखों में समेट लेना था। संपूर्ण विनाश के बीच खड़े सुखराज
जी की यह उन्मुक्त खिलखिलाहट वस्तुत: उनके अंतर में खिले हुए संन्यास
का फूल था। इस घटना के ठीक एक साल बाद मा आनंद मधु की कीर्तन मंडली निकली
और उनके साथ ओशो ने दो मालाएँ और दो कागजों पर लिखे हुए नाम भेजे: स्वामी
सुखराज भारती और मा योग भारती।
यार ने अपनी यारी निभाते हुए दुनिया की सबसे बड़ी सौगात अपने याद की झोली में डाल दी थी।
समाप्त
स्वामी सुखराज भारती
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