मैंने सुना है कि एक आदमी ने सिंहों की बोली सीख ली। वह इतना कुशल हो
गया सिंहों की बोली में— वर्षों मेहनत करके उसे बोली आई कि जब वह कुशल हो
गया तो जंगल गया। लेकिन जिस सिंह से उसने बात की, लगा कि बिलकुल बुद्ध है।
वह पूछे कुछ, वे जवाब कुछ दें। उसने पता लगाया कि कोई बुद्धिमान सिंह भी है
या नहीं। एक लोमड़ी ने उसे पता दिया कि अगर बुद्धिमान सिंह चाहिए तो वह
तुम्हें गहन से गहन जंगल में मिलेगा, वह सब सिंहों का राजा है, धर्मगुरु भी
वही है।
वह आदमी कठिनाइयों को पार करके उस सिंह तक पहुंचा। उससे उसने प्रश्न
पूछे। वह पूछे पूरब की, सिंह बोले पश्चिम की। उत्तर कुछ, प्रश्न कुछ। उस
आदमी ने तो सिर ठोक लिया, उसने कहा कि मैंने जिंदगी बर्बाद की तुम्हारी
भाषा सीखने के लिए और अनेक बुद्धओं से मैं पहले बात कर चुका हूं। और
तुम्हारा पता मिला, इसलिए तुम्हारे पास आया, तुम सबसे गए बीते मालूम होते
हो।
वह सिंह हंसने लगा। उसने कहा वे बुद्ध नहीं थे, वे सब मुझे मिल जुल चुके
हैं। जिन जिन से तुमने बात की, वे सब मुझसे बात कर गए हैं। मैं उनका राजा
हूं, धर्मगुरु भी। वे सब तुम पर हंस रहे हैं कि एक मूढ़ आदमी आ गया है जंगल
में। मूढ़ इसलिए कि अब तक किसी सिंह ने आदमियों की भाषा सीखने की कोशिश नहीं
की, क्योंकि इस योग्य ही नहीं समझा। और इस आदमी ने जिंदगी गवाई सिंहों की
भाषा समझने के लिए; अब यह सीख कर आ गया है और उलटे सीधे प्रश्न पूछता है कि
ईश्वर है? आत्मा है? स्वर्ग होता है? नरक होता है? तो जिन जिन से तुमने
बात की है, वे सब बुद्धिमान सिंह हैं। वे तुम्हें उलटे सीधे जवाब देकर टरका
दिए और वही मैं कर रहा हूं। तुम पूछोगे कुछ हम जवाब कुछ देंगे, क्योंकि
मूर्खतापूर्ण प्रश्नों का उत्तर सिर्फ मूर्खतापूर्ण ही ढंग से दिया जा सकता
है। कुछ बुद्धिमानी की बात पूछो तो हम कुछ बुद्धिमानी की बात कहें। सिंहों
की भाषा तो सीख गए, थोड़ी बुद्धिमानी भी सीख कर आओ।
ईश्वर है या नहीं यह सच में तुम्हारा जीवन का प्रश्न है? इस प्रश्न पर
तुम्हारा क्या अटका है? ईश्वर होगा तो फिर तुम क्या करोगे? और ईश्वर नहीं
होगा तो फिर क्या तुम करोगे? तुम जैसे थे वैसे ही रहोगे, ईश्वर हो या न हो।
उसी तरह दफ्तर जाओगे, उसी तरह पत्नी से लड़ोगे, उसी तरह बच्चों को मारोगे,
उसी तरह दीवाली पर जुआ खेलोगे और होली पर गालियां बकोगे ईश्वर हो तो, और
ईश्वर न हो तो! क्या फर्क पड़ेगा? क्योंकि कोई फर्क नहीं पड़ता जिंदगी में,
लोग सोचते हैं, इन बातों में पड़ना ही क्या! अगर सभी कहते है- है, तो ठीक
ही कहते होंगे। मान ही लो। कौन झंझट करे! कौन समय खराब करे!
इसलिए न तो तुम कभी पुनर्विचार करते हो, न कभी अपनी मान्यताओं का ऊहापोह
करते हो! न कभी खोद कर देखते हो कि हमने क्या—क्या मान रखा है, उसमें
कितना अनुभव है और कितना बासा, उधार है!
सौ में निन्यानबे लोग आस्तिक हैं, मगर उन निन्यानबे में तुम्हें शायद ही
एकाध आस्तिक मिले। मिलेंगे तो नास्तिक ही चेहरे, मुखौटे आस्तिक के हैं।
क्योंकि आस्तिक का चेहरा व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। होशियार लोग ऐसे
चेहरे लगा लेते हैं जिनसे लाभ हो। होशियार लोग नग्न नहीं जीते, वस्त्रों
में छिपा कर अपनी जिंदगी को चलाते हैं।
इक ओमकार सतनाम
ओशो
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