मैं एक स्टेशन से गुजर रहा था। खिलौनों के एक ठेले पर एक खिलौना मैंने
देखा। और वह चिल्ला—चिल्लाकर खिलौने बेचनेवाला कह रहा था कि कोई बच्चा इस
खिलौने को तोड़ नहीं सकता, यह अनब्रेकेबल है। तो मैंने सोचा, खरीद लूं
नसरुद्दीन के बच्चे के काम आयेगा, क्योंकि उसकी पली सदा यही रोना रोती रहती
है कि खिलौना घर तक नहीं आ पाता और लड़का तोड़ देता है। उसे मैंने खरीद
लिया। उसके दाम भी ज्यादा थे और मजबूत भी था। दिया नसरुद्दीन की पली को,
बेटे के लिए। पति पत्नी दोनों प्रसन्न हुए कि इसको वह भी तोड़ न पायेगा, हम
भी तोड़ न पायेंगे। सच में ही खिलौना मजबूत था।
सात दिन बाद उनके घर गया। पूछा, तो पत्नी कहने लगी, ‘बड़ी मुसीबत हो गयी!
‘ मैने पूछा कि क्या उसने वह खिलौना तोड़ दिया। पत्नी ने कहा, ‘नहीं, वह
खिलौना तो नहीं तोड़ पाया, लेकिन उस खिलौने से उसने सारे खिलौने तोड़ डाले,
घर के सब दर्पण तोड़ डाले और अब आत्मरक्षा के लिए हमें कुछ उपाय करना पड़ेगा।
वह खिलौने का अस की तरह उपयोग कर रहा है।’
तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती
है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो और नया मंत्र और एक बोझ ले
आयेगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है, कि जिनको तुम साधारणतया धार्मिक
आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं;
क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है,
धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस है। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन
पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया है; व्यस्तता
और बढ गयी।
तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पडना। जैसे
दवा को मात्रा में लेना होता है यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गये तो
बीमारी अभी ठीक हो जायेगी; उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी उसे
मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी होमियोपौथिक हैं, बड़ी
सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत
जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आयेगा भी नहीं। क्योंकि यह परम फल है। यह
कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पन्द्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म जन्म लग
जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो
उतना जल्दी फल आ जायेगा। और जितना अधैर्य हो, उतनी ज्यादा देर लग जायेगी।
एक आदमी जा रहा था रास्ते से। उसका जूता उसे काट रहा था; जूता छोटा था।
वह जूते को गालियां दे रहा था और परेशान था। नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि
मेरे भाई, इतना तंग जूता कहां से खरीदा। वह आदमी वैसे ही जला— भुना था,
वैसे ही क्रोध में था, उसने कहा, ‘जूता कहां से खरीदा! झाडू से तोड़ा है!
‘नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे भाई, थोड़ी देर रुक जाते तो पैर के नाप का तो हो
जाता। कच्चा तोड़ लिया!’
मंत्र कभी कच्चा मत तोडना, नहीं तो बुरे फंस जाओगे। जूते को तो कोई फेंक
दे, मंत्र को फेंकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जूता तो बाहर है, मंत्र
भीतर होता है। और अगर गलती से मंत्र में फंस गये तो निकालना बहुत मुश्किल
हो जाता है। बहुत—से धार्मिक लोग पागल हो जाते हैं। उसका कारण है कि मंत्र
में फंस गये, कुछ जल्दी कर ली तोड्ने की; फल पक नहीं पाया था, कच्चा ले
गये। पके तो फल बहुत मीठा हो जाता है; कच्चा बहुत तिक्त होगा, बहुत क्क्वा
होगा, जहरीला होगा।
पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी
है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त
छोड़कर मंत्र का इलाज शुरू किया तो बीमारी तुम्हारी रह जायेगी, मिटेगी
नहीं। कल नहीं परसों, कच्चा फल हाथ आयेगा। ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू
की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की तो वह सपना है। तुम
अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा। विधि को समझ लो।
पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले क्योंकि शांत बैठना आसान
नहीं है पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोलकर उछलना, कूदना, नाचना,
ताकि शरीर के भीतर, रग रग, रेशे रेशे में जो रेस्टलेसनेस, वह जो बेचैनी
है, वह निकल जाये। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे।
शांति से बैठने के
लिए यह जरूरी रेचन है। दस पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी
तुम्हारी बेचैनी हो उस हिसाब से, तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ
से हिलाना ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की
तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना डुलाना, नाचना कूदना, दौड़ना, फिर
बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंखें आधी
खुली रखना और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा
कमरा हो, बंद हो और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो। इसलिए मंदिर,
मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं। या घर
में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी देवताओं को भी मत
रखना, वे भी उपद्रव हैं। बिलकुल खाली कर देना।
बस, खालीपन ही एक परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल है। और मन
ऐसा पागल है कि लोगों के अगर पूजागृह देखो तो उनका पागलपन पता चल जाये। कोई
सौ पचास देवी देवताओं को लटकाये हुए हैं, जमाने भर के कलेंडर काट काट कर
टांग लिये हैं। जो भी देवी देवता जहां मिल जाता है, रही में, अखबार में
उसको वे चिपका लेते हैं। यह इनकी खोपड़ी का सबूत है। और इन सबके सामने
जल्दी जल्दी सिर झुकाकर, पानी वगैरह छिड़कर, सबको तृप्त करके, वे गये!
इनमें से कोई एक भी तृप्त नहीं होता है।
एक को तृप्त करने से सभी तृप्त हो
जायेंगे, सभी को तृप्त करने से एक भी तृप्त नहीं होता।
एक साधे, सब सधे। और वह एक बाहर नहीं है, भीतर है।
शिव सूत्र
ओशो
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