भक्ति तो एक है।
बुद्ध ने कहा है, जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है : ऐसा ही सत्य
भी है एक स्वाद है, एक रस है। फिर भी नारद ने भक्ति के तीन विभाजन किए हैं।
परा भक्ति के वे विभाजन नहीं हैं, गौणी भक्ति के विभाजन हैं।
तो पहला विभाजन : पराभक्ति मुख्याभक्ति, वह तो एक स्वरूप है। फिर गौणी
भक्ति : दोयम, नीची, मनुष्यों के अनुसार। चूंकि मनुष्य तीन प्रकार के हैं,
इसलिए स्व भावत : उनकी भक्ति भी तीन प्रकार की हो जाती है।
सात्वि भक्ति का अर्थ होता है: व्यक्ति पापों के विमोचन के लिए, अंधकार से
मुक्त होने के लिए, मृत्यु से पार जाने के लिए भक्ति कर रहा है। भक्ति में
आकांक्षा है सात्वि पुरुष की भी, इसलिए वह पराभक्ति नहीं। पराभक्ति में तो
कोई भी आकांक्षा नहीं है सत्व की भी नहीं है। पराभक्ति में तो परमात्मा को
पाने को आकांक्षा भी नहीं है। क्योंकि जहां अकांक्षा है, वहां मनुष्य आ
गया। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हारी है। तुम्हारी आकांक्षा से जो भी गुजरेगा,
तुम्हारी आकांक्षा के रूप को ले लेगा। तुम्हारी आकांक्षा उसे विकृत कर
देगी। तुम्हारी आकांक्षा उसे श्दुद्ध कर देगी। उसका कुआरापन खो जाएगा।
आकांक्षा भ्रष्ट करती है। तो सत्व की आकांक्षा भी यद्यपि बड़ी ऊंची आकांक्षा
है, पर कितनी ही ऊंची हो, गौरीशंकर की चोटी कितनी ही ऊंची हो, ऐसे पृथ्वी
से ही रहती है। आकांक्षा के जाल से संबंध बना रहता है। अभी भी मन में कुछ
पाने का खयाल होता है परमात्मा नहीं, मोक्ष सही; लेकिन पाने का खयाल होता
है। और जहां तक पाने का खयाल है, वहां तक संसार है।
फिर उससे नीची भक्ति है: राजसी भक्ति। तुम मांगते हो–बडा राज्य मिल जाए,
सत्कार मिले, सम्मान मिले, राष्ट्रपति हो जाओ कि प्रधानमंत्री हो जाओ। कि
चुनाव में लड़ते हो तो मंदिर जाते हो! दिल्ली के सभी राजनेताओं के गुरु हैं। जैसे ही जीते,
भूल जाते हैं, वह बात दूसरी; मगर हारे कि गुरु के पास पहुंच जाते हैं।
यश मिले, कीर्ति मिले, धन मिले, पद मिले यह राजसी मन का लक्षण है।
अहंकार की तृप्ति हो, अस्मिता बढ़े, मैं कुछ हो जाऊं! फिर किसी भी रूप में
मांगते हो। तो अगर तुम मंदिर में गए और तुमने यश, धन, कीर्ति मांगी; सुयश
फैले, मेरे परिवार, मेरे कुल का नाम सदा रहे–तो तुम्हारी भक्ति और भी नीचे
गिर गई, राजसी हो गई।
उससे भी नीचे तामसी भक्ति है। तामसी व्यक्ति राज्य भी नहीं मांगता,
यशकीर्ति भी नहीं मांगता–वह कहता है, फलां आदमी मर जाए; इस पर दुख का पहाड़
गिर पड़े; चाहे इसे मिटाने में मैं मिट जाऊं, मगर इसे मिटाकर रहूंगा। उसका
मन क्रोध से, तमस से; उसका मन हिंसा से, ईष्या से–आदोलित होता है–विनाश से!
लेकिन एक बड़ी अनूठी बात है जो समझ लेनी चाहिए–वह यह कि भक्ति का सेत्र
तीनों में है। क्योंकि ऐसे तामसी व्यक्ति भी हैं तो सीधा छुरा मार आएंगे,
जो भगवान के मंदिर न जाएंगे पूछने कि आज्ञा है, कि इस आदमी को मिटाना है;
जो मिटा ही देंगे, जो भगवान को बीच में भी न लेंगे, इस बुरे काम के लिए भी
बीच में न लेंगे, भले काम की तो बात दूर। यह तामसी व्यक्ति कम-से-कम मंदिर
तक तो जाता है; इसके जाने का कारण गलत है, माना, मगर जाता ठीक जगह है। गलत
आकांक्षा से जाता है, लेनिक जाता ठीक के पास है। इतना तो कम-से-कम ठीक है
ही। आखें इसकी धुंधली हैं, परदा है क्रोध की-कोई बात नहीं। अगर प्रार्थना
करता ही रहा, रोता ही रहा प्रार्थना में, तो शायद आंख से धुंधलका हट जाएगा।
जो आदमी धन के लिए पद के लिए मांगने गया है, कब तक मांगेगा; कभी तो
जानेगा, समझेगा कि यह मैं क्या मांग रहा हूं! मांगते-मांगते, प्रार्थना
करते-करते होश भी तो सम्हलेगा कम-से-कम पाएगा तो मंदिर में अपने को–कभी होश
भी आ जाए। गलत कारण से ही सही, लेकिन ठीक जगह तो है–कभी झलक मिल जाए, तो
शायद सात्वि हो जाएगा। किसी दिन पाएगा कि मांगा परमात्मा से धन और मिला;
बड़ी भूल हो गई, कुछ और बड़ी बात मांग लेते। धन मांगा, क्या पाया! मिल भी
गया, तो भी कुछ न पाया। पर अब शिकायत भी किसकी करें, खुद ही मांगा था। पद
पा लेगा, लेकिन पद पाकर पाएगा, सिवाय खींचातानी के और कुछ भी नहीं है।
भक्ति सूत्र (ऋषिवर नारद)
ओशो
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