मन उन दस लाख रुपयों का चिंतन करता है जो होने चाहिए, पर हैं नहीं। मन
अभाव का चिंतन करता है। जो पत्नी तुम्हें उपलब्ध है मन उसे भूल जाता है। जो
पत्नी उपलब्ध नहीं है, जो स्त्री उपलब्ध नहीं है, मन उसकी कल्पनाएं करता
है, योजनाएं बनाता है। तुम्हें जो मिला है, मन उसे देखता ही नहीं, मन उसी
पर नजर रखता है, जो मिला नहीं है। हाथ की असलियत मन को नहीं भाती, स्वप्न
के आभास भाते हैं। मन स्वप्न के भोजन पर जीता है। मन जीता ही स्वप्न के
सहारे है।
जब भी तुम आंख बंद करोगे, भीतर सपनों का जाल पाओगे, चलते ही रहते हैं,
रुकते ही नहीं। तुम आंख खोले काम में भी लगे हो, तब भी भीतर उनका सिलसिला
जारी रहता है, तब भी पर्त दर पर्त सपने भीतर घने होने रहते हैं। तुम देखो
या न देखो, लेकिन मन सपने बुनता रहता है। मन का सपनों का ताना- बाना क्षणभर
को रुकता नहीं। उसी सपने के जाल का नाम माया है। उसी सपने के जाल में उलझे
तुम परेशान और पीड़ित हो।
जो नहीं है उसने तुम्हें अटकाया है। जो नहीं है उसने तुम्हें भरमाया है।
जो नहीं है उसने तुम्हारी आखें बंद कर दी हैं, और जो है उसे देखना मुश्किल
हो गया है।
रात तुम स्वप्न देखते हो, कितनी बार देखे हैं, हर बार सुबह जागकर पाया,
झूठे थे! लेकिन फिर जब रात आज देखोगे स्वप्न तो देखते समय सच मानोगे। झूठ
को सच मानने की तुम्हारी कितनी प्रगाढ़ धारणा है! कितनी बार जागकर भी, कितनी
बार देखकर भी कि सपने सुबह झूठ सिद्ध हो जाते हैं, फिर भी जब तुम रात
स्वप्न देखोगे आज, तो सच मालूम होगा, शक भी न आएगा।
मेरे पास लोग आते हैं, कहते हैं - हमारे मन में श्रद्धा नहीं है। हम
बड़े संदेहशील हैं। हमारा निस्तार कैसे होगा? ‘मैं उनसे कहता हूं-मैंने
अभी तक संदेहशील व्यक्ति देखा नहीं। तुम सपनों तक पर श्रद्धा करते हो, सत्य
की तो बात ही छोड़ो। तुम सपनों तक पर भरोसा करते हो, उन पर तक तुम्हें अभी
संदेह नहीं आया, तो तुम और किस पर संदेह करोगे? जो नहीं है, उस पर भी संदेह
नहीं हो पाता, तो जो है उस पर तुम कैसे संदेह करोगे?
संदेहशील व्यक्ति मैंने अभी देखा नहीं क्योंकि जो संदेहशील हो वह पहले
तो सपनों को तोड़ेगा। जिसने सपने तोड़े उसके भीतर श्रद्धा का जन्म हुआ। जिसने
सपने तोड़े, उसने तब सत्य को जानने का मार्ग साफ कर लिया। आज फिर रात जब
तुम सपना देखोगे तब फिर खो जाओगे सपने में। ऐसा कितनी बार हुआ है, कितने
जन्मों- जन्मों हुआ है! रात की छोड़ो, क्योंकि रात तुम कहोगे कि हम बेहोश
हैं, चलो दिन का ही विचार करें। दिन में भी कितनी बार क्रोध किया है, और
कितनी बार तय किया है और कितनी बार पछताये हो कि अब नहीं, अब नहीं, बहुत हो
गया। फिर जब क्रोध पकड़ लेता है और क्रोध का धुआ जब तुम्हें घेर लेता है,
तब तुम फिर बेसुध हो जाते हो, सारे पछतावे, सारे पश्वाताप, सारे निर्णय,
संकल्प व्यर्थ हो जाते हैं। क्रोध का जरा सा धुंआ और तुम्हारे पैर उखड़ जाते
हैं, जड़े टूट जाती हैं, तुम फिर बेहोश हो जाते हो, तुम फिर बेसुध हो जाते
हो। कितनी बार नहीं देखा कि कामवासना व्यर्थ ही भरमाती है, भटकाती है,
पहुंचाती कहीं नहीं, दूर से दिखाती है मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल ही
पाये जाते हैं। कितनी बार नहीं जाना है इसे! लेकिन फिर तुम भटकोगे, फिर तुम
खोओगे। फिर कामवासना पकड़ेगी और तब फिर तुम सपने सजाने लगोगे–और मन
कहेगा हो सकता है, इतनी बार झूठ सिद्ध हुई हो, अब की बार न हो! अपवाद हो
सकते हैं। जो अब तक नहीं हुआ, शायद अब हो जाए’’ ।
मन "शायद’’ पर जीता है... मन आशा पर जीता है।
भक्ति सूत्र
ओशो
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