मेरे सारे ध्यान के प्रयोग मौलिक रूप से थकाने के प्रयोग हैं, ताकि इंद्रियां
थककर बैठ जाएं। एक रास्ता है जबरदस्ती बिठाने का। मैं उसके पक्ष में नहीं
हूं क्योंकि जबरदस्ती कोई भी इंद्रियों को बैठा नहीं सकता। हालत वैसी हो
जाती है, जैसे छोटे बच्चे को कह दो कि बैठो शाति से। तो वह बैठ जाता है,
लेकिन उसकी सारी ताकत शांति से बैठने में लग रही है। एक एक चीज को खींचे
हुए है। तना हुआ है। शिथिल भी नहीं हो पाता। विश्राम भी नहीं कर पाता।
तनावग्रस्त है।
बच्चे को कहो कि दौड़ो, एक पच्चीस चक्कर लगाओ। फिर कहने की जरूरत
नहीं कि शांत बैठ जाओ। पच्चीस चक्कर के बाद वह खुद ही शांत बैठ जाएगा। वह
शांति बड़ी अलग होगी। उस शाति में कोई तनाव नहीं होगा, कोई बेचैनी नहीं
होगी। बल्कि शांति में एक सुख होगा, एक राहत होगी, एक झलक होगी विश्राम की।
इंद्रियों को थका डालें, इतना थका डालें कि क्षणभर को भी अगर वे
विश्राम में पहुंच जाएं, तो उतने क्षणभर को आपका प्रवेश भीतर हो जाए।
जो बाल बुद्धि वाले बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं वे सर्वत्र फैले
हुए मृत्यु के बंधन में पड़ते हैं। किंतु बुद्धिमान मनुष्य नित्य अमरपद को
विवेक द्वारा जानकर इस जगत में अनित्य भोगों में से किसी को भी नहीं चाहते
विवेक का अर्थ इतना ही है कि जो निरर्थक है, वह हमें निरर्थक दिखाई पड़
जाए; जो सार्थक है, वह सार्थक दिखाई पड़ जाए। जगत में हम कुछ भी चाहें, पहली
तो बात, अगर न मिले तो दुख, और मिल जाए तो भी सुख नहीं। एक आदमी धन चाहता
है। जब तक नहीं मिलता, तब तक दुखी है। और जब मिल जाता है, तब वह पाता है कि
क्या मिला? धन के ढेर लग गए, अब क्या?
जो भी आपने चाहा है अपने अतीत में, अगर न मिला तो आपने दुख पाया है, अगर
मिल गया तो कौन सा सुख पाया है? बस जब तक नहीं मिलता, तभी तक सुख का आभास
होता है। इस जगत में दुख वास्तविक है, सुख सिर्फ आभास है। जो चीज नहीं
मिलती, बस उसमें सुख है। और जो मिल जाती है, उसमें सब सुख खो जाता है।
इसलिए कोई भी आदमी कहीं भी सुखी नहीं है।
मेरे एक मित्र हैं। वे पहले एम. एल. ए. थे, तो वे मुझसे कहते थे,
आशीर्वाद दें बस और कुछ चाहिए नहीं कि कम से कम डिप्टी मिनिस्टर तो मुझे
बनवा ही दें। मैं उनको कहता कि बन ही जाएंगे, क्योंकि जैसा पागलपन आपमें
है, आप बिना बने बच नहीं सकते। लेकिन आप अगर सोचते हों कि बड़ा आनंद घटित हो
जाएगा, तो आप गलती में हैं।
फिर वे डिप्टी मिनिस्टर भी हो गए। तो वे आए मेरे पास और कहने लगे कि बस,
अब एक आकांक्षा है कि मिनिस्टर हो जाऊं। मैंने उनको कहा कि आपको सुख
डिप्टी मिनिस्टर होने से मिल गया, जिसको आप वर्षों से सोचते थे? उन्होंने
कहा, डिप्टी मिनिस्टर में कुछ भी नहीं रखा है, मिनिस्टर होने से ही कुछ हो
सकता है। फिर अब वे मिनिस्टर भी हो गए। तो अब वे कहते हैं कि चीफ मिनिस्टर
हो जाएं। मैंने उनको पूछा कि तुम कहां रुकोगे? पिछले अनुभव से कुछ सीखो।
आदमी जहां है, वहीं दुखी है। सुखी आदमी खोजना कठिन है। आपने कभी कोई
सुखी आदमी देखा? सुखी आदमी वही हो सकता है, जो जहा है वहीं सुखी है। लेकिन
जो आदमी भी कहीं और सोचता है कि सुख होगा, वह दुखी होगा। जो जहां है वहीं
सुखी है, ऐसे आदमी का नाम ही संन्यासी है।
और जो जहा है वहीं दुखी है, ऐसे आदमी का नाम ही गृहस्थ है। वह हमेशा
भविष्य में ही जी रहा है। कल उसका सुख है। स्वर्ग कल है, आज कुछ भी नहीं।
आज को समर्पित करेगा कल के लिए। आज को लगाएगा कल के लिए। आज को जलाएगा कल
के लिए, ताकि कल का स्वर्ग मिल जाए। कल कभी आता नहीं। कल जब आएगा, वह आज ही
होगा। वह उस आज को फिर कल के लिए लगाएगा। ऐसे वह लगाता जाता है। और एक दिन
सिवाय मृत्यु के हाथ में कुछ भी नहीं आता।
कठोपनिषद
ओशो
कठोपनिषद
ओशो
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