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Tuesday, September 15, 2015

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं : मन बड़ा अशांत है, शांति चाहिए...

  अब यह एक नयी अशांति शुरू हुई! मन अशांत था, वह तो था ही; अब शांति चाहिए। और शांत नहीं हो रहा है मन तो और मुश्किल हो गयी। इससे तो जो अशांत हैं और शांति नहीं चाहते हैं, वे ही कम अशांत हैं। कम से कम उनकी अशांति इकहरी है।

तो चिंता से मुक्त होने को नयी चिंता मत बना लेना। चिंता से मुक्त होने में तो सिर्फ एक इंगित है चिंता से मुक्त होने की कला है; उस कला का नाम साक्षीभाव है, ध्यान है। कोई चिंता नहीं करनी पड़ती चिंता से मुक्त होने के लिए। वह तो कीचड़ से कीचड़ धोना होगा। और कीचड़ मच जायेगी!

चिंता से मुक्त होने का तो एक ही उपाय है : साक्षी। जो भी भीतर चलता है, विचारों की तरंगें आती—जाती हैं, तुम देखते रहना। तुम पक्षपात न करना। तुम यह भी मत कहना कि यह अच्छा विचार यह बुरा विचार, यह पकड़ लूं यह छोड़ दूं। इसी से चिंता पैदा हो रही है पकड़ने छोड़ने से। तुम तो देखते रहना निष्पक्ष। जैसे कोई राह चलते लोगों को देखता है, ऐसे ही चित्त की राह पर चलते विचारों को तुम चुपचाप बैठ कर देखते रहना। अगर तुम एक घड़ी रोज इतना ही कर सको कि सिर्फ बैठ जाओ और देखते रहो…।

शांत होने की चेष्टा मत करना, नहीं तो और अशांत हो जाओगे। चिंता से छूटने की चिंता मत करने लगना। जो भी हो रहा है चित्त में अशांति, चिंता, उपद्रव, व्यर्थ की बकवास, पागलपन जों भी हो रहा है, चुपचाप इसे देखना। जैसे तुम दर्पण हो और दर्पण के सामने से जो भी निकल रहा है, उसकी छाया बन रही है। दर्पण को क्या लेना देना है! कोई छाया बनने से दर्पण बिगड़ता तो नहीं, विकृत तो नहीं होता। कुरूप आदमी दर्पण के सामने खड़ा हो जाये तो दर्पण कुरूप तो नहीं हो जाता? और न सुंदर के खड़े होने से सुंदर हो जाता है। तो क्या फर्क पड़ता है, सुंदर खड़ा हो कि कुरूप खड़ा हो, दर्पण को क्या लेना देना है? दर्पण अलिप्त भाव से देखता रहता है।

मरो है जोगी मरो 

ओशो 

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