बुरे से बुरा आदमी भी अपनी एक सुंदर प्रतिमा
बनाकर रखता है। वह सुंदर प्रतिमा बुरा होने में सहयोगी है; क्योंकि उस प्रतिमा के कारण
ही तुम बुराई के घाव को नहीं देख पाते। उस प्रतिमा के कारण ही बुराई तुम्हें किस तरह
बांधे हुए है, और किस भांति जहर तुम्हारे रोएं—रोएं में समा
गया है, उसकी तुम्हें प्रतीति नहीं हो पाती। वह उस प्रतीति
से बचने का उपाय है। इसलिए तुम विधि पूछते हो, मार्ग पूछते
हो।
यह तो पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि तुम बंध
हो, क्योंकि तुम
बंधना चाहते हो। यह कितना ही कष्टपूर्ण हो, लेकिन इसे भलाभांति
समझ लेना कि जंजीरें तुम्हारे हाथ में हैं, किसी और ने तुम्हें
पहनवाई नहीं, तुमने ही पहनी हैं।
दोष दूसरे पर डालना हमेशा सुगम है। पति सोचना
है, पत्नी ने
बंधन डाला हुआ है। कैसी मूढ़ता है! पत्नी सोचती है, पति ने
बंधन डाला हुआ है। कैसा पागलपन है! कोई दूसरा बंधन डाल कैसे सकेगा? अगर तुम बंधन न चाहो, कोई तुम्हें रोक सकता?
पत्नी रोक सकती, पति रोक सकता? बच्चे रोक सकते हैं? कौन रोक सकता है? दुनिया की कोई भी शक्ति तुम्हें बंधन में नहीं डाल सकती। तुम्हारी मुक्ति
अपराजेय है, उसे पराजित नहीं किया जा सकता। अगर घुटने टेककर
तुम रुके हो, तो तुम जिम्मेदार हो। कोई किसी को बांध नहीं
रहा है। कोई किसी को बांध ही कैसे सकता है? कम से कम एक चीज
तो ऐसी है जिस पर किसी का कोई वश नहीं है: वह तुम्हारी आंतरिक परम स्वतंत्रता है।
सुनो भई साधो
ओशो
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