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Wednesday, September 20, 2017

ध्यान द्वार में प्रवेश है



विद्यासागर एक नाटक देखने गए थे कलकत्ते में। और इतने उत्तेजित हो गए नाटक देखकर--एक आदमी है जो पीछे पड़ा है। एक औरत के। वह उसे परेशान कर रहा है। आखिर में अंधकार में एक घने जंगल में उसने स्त्री को पकड़ लिया है। वह बलात्कार करने को है ही, कि विद्यासागर भूल गए। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए। निकाला जूता और मारने लगे उस पात्र को। उस पात्र ने विद्यासागर से ज्यादा बुद्धिमत्ता दिखायी। वह जूता हाथ में लेकर उसने नमस्कार किया और लोगों से कहा--इतना बड़ा पुरस्कार अभिनय का मुझे कभी नहीं मिला। विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी अभिनय को समझ गया सच है। इस जूते को सम्हालकर रख लूंगा। अब इसे मैं विद्यासागर जी--आपको दूंगा नहीं। यह मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है। यह याद रहेगा कि कभी अभिनय ऐसा किया था कि सत्य मालूम पड़ गया। और विद्यासागर को भी लगा कि सच है। भूल गए कि नाटक हो रहा है। 

साक्षी वहां भी हम नहीं रह पाते नाटक में, फिल्मों में। तो जिंदगी में कैसे रह पाएंगे? नाटक को हम ऐसा समझ लेते हैं कि जिंदगी है। और ध्यान करने वाले को जिंदगी ऐसी समझनी होगी जैसे नाटक है। 

ध्यान में जाने वाले को जानना होगा कि क्या है यह सब? किसी ने गाली दी है, तो क्या है? शब्दों की, कुछ ध्वनियों की, टंकार। जो कान के पर्दों को हिला जाती है। और क्या है? और किसी ने जूता फेंककर मार दिया और सिर पर लगा है जूता। तो क्या है--कुछ अणुओं का कुछ और अणुओं पर दबाव, और क्या है? ध्यान वाले को जानना पड़ेगा। और किसी ने काट दी है गर्दन, और गुजर गयी है तलवार गर्दन से। आरपार हो गयी है। जगह भी वहां--इसीलिए आरपार हो गयी है। चीजें अलग थीं, इसीलिए अलग हो गयी हैं। और क्या है? ध्यान के प्रयोग में निरंतर जानना होगा कि है क्या? और खोज करनी पड़ेगी और जागना पड़ेगा। और तब धीरे-धीरे बहुत अदभुत होगा और अदभुत के द्वार खुलने लगेंगे। 

साक्षी जैसे ही मन होता है वैसे ही वैसे एक अनुपम शांति, एक सन्नाटा, एक शून्य आने लगता है। बीच में जगह खाली--स्पेस पैदा होने लगती है। आकाश बीच में आने लगता है। चीजें अपनी सचाई में दिखाई पड़ने लगती हैं। नाटक नाटक हो जाता है। और जब नाटक नाटक हो जाता है तब संभावना उतरी है उसकी, जो सत्य है। जब तक नाटक सत्य है, तब तक सत्य असत्य ही बना रहेगा। जब नाटक नाटक हो जाएगा असत्य असत्य हो जाएगा। दी फाल्स इज नोन ऐज दी फाल्स। 

जब हम भ्रामक को--मिथ्या को, जान लेंगे, मिथ्या है--तब उसकी प्रतीति, उसका उदघाटन--उसका--वह जो सत्य है--जो मिथ्या नहीं है, वह उतरना शुरू होता है। ध्यान द्वार में प्रवेश है। लेकिन प्रभु में पहुंच जाना नहीं।

ध्यान द्वार में प्रवेश है। मैं आपके मकान में प्रविष्ट हो गया लेकिन यह आपमें पहुंच जाना नहीं। और प्रभु मंदिर में पूर्ण प्रवेश तो जब प्रभु में हम एक ही हो जाए, तभी संभव होता है।

तो तीसरा सूत्र है साक्षी भाव। इसमें द्वार खुल जाएगा। आप भीतर पहुंच जाएंगे। लेकिन फिर भी एक रुकावट है। प्रभु और है आप और है। मंदिर में पहुंच गए, वह और है, आप और हैं। सत्य दिखायी पड़ा है। लेकिन सत्य वह रहा--आप यह रहे। अब यह फासला भी टूट जाएगा। तो ही सत्य को उसकी परिपूर्णता में जीया और जाना जा सकता है। अभी सत्य को देखा गया बाहर से--दूर से--अभी सत्य को पहचाना गया बाहर से देर से। अभी सत्य ही नहीं हो जाया गया है। सत्य को जानना ही नहीं है। सत्य को जीना भी है। सत्य को देखना ही नहीं है। सत्य को जाना भी है। परमात्मा में पूर्ण प्रवेश स्वयं के परमात्मा हुए बिना नहीं हो सकती है। ध्यान के भी ऊपर उठना होगा।


प्रभु मंदिर के द्वार

ओशो

मैं चकित हूं यह देख कर कि आपके तीर्थ में किस भांति देश-देश से दूर-दूर की यात्राएं करके लोग आ रहे हैं। और आप हैं कि कभी अपने कक्ष से भी बाहर नहीं जाते! यह चमत्कार क्या है? समझावें।



प्रेम कीर्ति! चमत्कार इसमें जरा भी नहीं। एस धम्मो सनंतनो! ऐसा ही सनातन नियम है। दीया जलेगा, तो परवाने दूर-दूर से खोजते चले आएंगे। दीये को उन्हें ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता। दीया अपनी जगह होता है; परवाने आते हैं। और परवाने मिटने आते हैं, दीये के साथ जल कर एक हो जाने आते हैं! 
 
शिष्य अपनी मृत्यु खोज रहा है। अपनी मृत्यु अर्थात अहंकार की मृत्यु। शिष्य बोझिल है अपने होने से। बहुत ढो चुका भार। खींच चुका हिमालय को बहुत अपने सिर पर। निर्भार होना चाहता है। कोई चरण चाहता है, जहां अपना सारा भार उतार कर रख सके। कोई सान्निध्य चाहता है, जहां बोध जगे, होश जगे, कि अब तक जो कांटे बोए हैं, आगे उनका बोना बंद हो जाए। क्योंकि जो हम बोते हैं, वही हम काटते हैं। कांटे बोते हैं, कांटे काटते हैं। बोते तो कांटे हैं, आशा करते हैं फूलों की। इससे निराशा हाथ लगती है।

शिष्य खोज रहा है कोई स्थल, कोई विद्यापीठ, कोई सत्संग--जहां फूलों के बीज कैसे बोए जाएं, फूल कैसे उगाए जाएं--इसकी कला सीख सके। और इस कला का पहला कदम है--अपने को मिटा देना, अपने को समर्पित कर देना। समर्पण से बड़ा सौभाग्य इस जगत में दूसरा नहीं है।

प्रत्येक व्यक्ति समर्पण को खोज रहा है--जाने-अनजाने, गलत-सही। जब तुम प्रेम के लिए आतुर होते हो, तो तुम समर्पण के लिए आतुर हो। लेकिन प्रेम तृप्ति नहीं देगा। क्योंकि समान चेतना की अवस्था वाले दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति वस्तुतः समर्पित नहीं हो सकते हैं। बुझे दीये के सामने पतिंगा समर्पित भी हो, तो कैसे हो? वह ज्योति ही नहीं है, जिसमें डूबा जा सके, मिटा जा सके, लीन हुआ जा सके।

बुझे लोग तो बहुत मिलते हैं, तुम अपना प्रेम भी उन पर ढालते हो। पर हाथ कुछ लगता नहीं। लग सकता नहीं। तुम भी बुझे, वे भी बुझे। जहां एक बुझा दीया था, वहां दो बुझे दीये हो जाते हैं। इसलिए प्रेम विषाद लाता है। यद्यपि प्रेम की तलाश समर्पण की थी, लेकिन जल्दी ही प्रेम समर्पण की जगह एक-दूसरे पर मालकियत करने की दौड़ में परिणत हो जाता है।

बुझा दीया तुम्हें मिटा तो सकता नहीं। बुझे दीये के साथ करोगे क्या? बुझा दीया तुम पर मालकियत करने की कोशिश करेगा। क्योंकि बुझा दीया यानी अहंकार से भरा हुआ व्यक्ति। और अहंकार की एक ही चेष्टा है--दूसरे के ऊपर मालिक हो जाना। अहंकार दावेदार है, परिग्रही है, परिग्रह से ही जीता है। दूसरे पर जितना दावा हो उतना ही अहंकार परिपुष्ट होता है। चले थे समर्पण को, बात उलटी ही हो गई। करने लगे संघर्ष।

इसलिए जो प्रेम बड़ी सुखद कल्पनाओं और आशाओं में शुरू होते हैं, वे बड़े दुखद नरकों में परिणत हो जाते हैं। परंतु फिर भी प्रेम में खोज तो समर्पण की ही थी। दिशा गलत थी, बात और। लेकिन आकांक्षा सही थी। रेत से तेल निचोड़ना चाहा था। तेल निचोड़ना चाहा था, वह आकांक्षा तो ठीक थी। पर रेत से तेल निचोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए असफलता हाथ लगेगी। जीवन एक लंबी विफलता और व्यथा की कहानी हो जाएगा। मरते समय तुम पाओगे: खाली हाथ आए थे, और भी खाली हाथ जाते हो।

जिनका प्रेम सब जगह से असफल हो चुका है, वे ही सदगुरु के पास आकर सफल हो पाते हैं। जिन्होंने प्रेम को बहुत-बहुत रूपों में देखा, परखा और उसकी पीड़ा झेली है, वे ही सदगुरु के प्रेम में गिर पाते हैं। वह प्रेम की अंतिम पराकाष्ठा है। उसके पार फिर प्रेम निराकार हो जाता है। सदगुरु तक प्रेम में आकार होता है। सदगुरु से प्रवेश हुआ कि प्रेम निराकार हुआ। परवाना जलती हुई शमा पर गिरा कि निराकार हुआ। और जैसे शमा की ज्योति भागी जा रही है आकाश की तरफ, परवाना मिटा कि उसके लिए भी आकाश के द्वार खुले।

तुम जरा शमा तो जलाओ! और देखो दूर-दूर से पतिंगे आने शुरू हो जाते हैं। इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है। मनुष्य सदा से तलाश में है। सत्य की किसको अभीप्सा नहीं है?

मैं यहां बैठ कर मौन पुकार दे रहा हूं। वह मौन पुकार सुनी जाएगी दूर-दूर तक। जहां भी हृदय प्रेम के लिए लालायित है, वहीं हृदयत्तंत्री बज उठेगी। समय और स्थान इस पुकार में व्यवधान नहीं बनते हैं। प्रेम समय और स्थान के अतीत है। वहां दूरियां मिट जाती हैं। वहां कोई दूरी नहीं होती। 

मृत्योर्मा अमृतं गमय 

ओशो

यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है?



पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर, अशांति भी पूरी नहीं हो पाती।

हमारी बीमारी भी इतनी कम है कि हम चिकित्सा की तलाश में भी नहीं निकलते। जब बीमारी बढ़ जाती है तो चिकित्सक की खोज शुरू होती है। लेकिन हम बचपन से ही इस भांति पाले जाते हैं कि हम कुछ भी पूरी तरह नहीं कर पाते। न तो हम क्रोध पूरी तरह कर पाते हैं कि अशांत हो जायें। न ही चिंता पूरी तरह कर पाते हैं कि मन व्यथित हो जाये। न हम द्वेष पूरी तरह कर पाते हैं, न घृणा पूरी तरह कर पाते हैं कि मन में आग लग जाये और नर्क पैदा हो जाये। हम इतने कुनकुने जीते हैं कि कभी आग जल ही नहीं पाती और इसलिए पानी खोजने भी हम नहीं निकलते जो उसे बुझा दे। हमारा कुनकुना जीना ही, ल्यूक-वार्म-लिविंग ही हमारी कठिनाई है।

जब कोई मुझसे पूछता है कि जब शांत होना इतना आसान है तो बहुत लोग शांत क्यों नहीं हो जाते। तो पहली बात तो यह है कि वे अभी ठीक से अशांत ही नहीं हुए हैं। उन्हें अशांत होना पड़ेगा। शांत तो आदमी क्षण-भर में हो जाता है, अशांत होने के लिए जन्म-जन्म लेने पड़ते हैं, लंबी यात्रा है। यह इतने जन्मों की हमारी जो यात्रा है, यह शांति की यात्रा नहीं है, शांति तो क्षण-भर में घटित हो जाती है। यह इतने जन्मों की यात्रा हमारे अशांत होने की यात्रा है जो हम पूरी तरह अशांत हो जाते हैं। जब अशांति की चरम अवस्था आ जाती है, क्लाइमेक्स आ जाता है, तब हम लौटना शुरू करते हैं।

बुद्ध एक गांव में गये--और जो आज मुझसे आपने पूछा है एक आदमी ने उनसे भी आकर पूछा। और उस आदमी ने उनसे कहा था कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गांव-गांव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए, कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, कौन नहीं शांत हो गया। बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें। 

बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूं। और एक छोटा-सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं कर लाऊंगा। और सांझ आ जाता हूं हिसाब पक्का रखना, मैं जानना ही चाहता हूं कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए; कितने लोगों ने परमात्मा पा लिया; कितने लोग आनंद को उपलब्ध हो गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।

बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज ले जाओ और गांव में एक-एक आदमी से पूछ आओ, उसकी जिंदगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है? वह आदमी गया। उसने गांव में--एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोपड़ियां थीं, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत जरूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा--और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए। किसी ने कहा--और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस, और सब ठीक है। सारे गांव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूंगा जाकर। क्योंकि उसे खयाल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव-भर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शांति चाहिए; जिसने कहा, परमात्मा चाहिए; जिसने कहा आनंद चाहिए। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये कि सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया।

बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूं। बुद्ध ने कहा, कितने लोग शांति चाहते हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गांव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शांति? तो रुक जा। उसने कहा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूं, अभी शांति लेकर क्या करूंगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये तो मैं आऊंगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है, अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शांत हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूं।

कोई किसी को शांत नहीं कर सकता, लेकिन हम शांत हो सकते हैं। पर अशांत हो गये हों तभी।

जीवन ही है प्रभु (साधना शिविर)

ओशो

शक्ति सदा शुभ नहीं है। शक्ति केवल ज्ञान के ही हाथों में ही शुभ है



तैमूरलंग का नाम आपने सुना होगा, वह जब हिंदुस्तान आया, उसने एक बहुत बड़े वृद्ध फकीर से पूछा, कि मैं सुनता हूं कि बहुत अधिक नींद लेना बुरा है, बहुत सोना बुरा है। मैं तो बहुत सोता हूं, क्या यह बुरा है? उस वृद्ध फकीर ने कहा: तुम जैसे मनुष्यों का चौबीस घंटे सोना ही बेहतर है। बुरा आदमी सोया रहे यह शुभ है। भले आदमी का जागना शुभ होता है, बुरे आदमी का नहीं। उस फकीर ने कहा: जिस किताब में यह लिखा हो उसमें यह भी जोड़ लेना। 

ऐसे ही मैं आपसे कहना चाहूंगा: शक्ति सदा शुभ नहीं है। शक्ति केवल ज्ञान के ही हाथों में ही शुभ है, अज्ञानपूर्ण हाथों में अशुभ और दुर्भाग्य है। 

मनुष्य के जीवन का दुख इस केंद्रीय तथ्य पर निर्भर हो गया है: भीतर है अज्ञान, बाहर है शक्ति। भीतर है अंधकार, बाहर है विज्ञान की ज्योति। हाथ हैं अज्ञान के और शक्ति है महत्। उस शक्ति से जो भी हो रहा है वह घातक हो रहा है। उस शक्ति से हमने जो भी जाना है, वही हमारे जीवन के विरोध में खड़ा हो गया है। हमने जो भी बनाया है, वही हमारा विनाश हो रहा है। इसलिए एक और प्रगति दिखाई पड़ती है, दूसरी और मनुष्य के जीवन में एक आंतरिक ह्रास होता चला जाता है। 

क्या हो? क्या रास्ता है? एक रास्ता है, उन लोगों ने सुझाया, जो मानते हैं कि मनुष्य पीछे वापस लौट चले--वैज्ञानिक खोजों को छोड़ दे, वह जो शक्ति हाथ में आई है उसे त्याग दे, वापस लौट चले पीछे की तरफ। यंत्रों को छोड़ दे, यंत्र-विज्ञान को, टेक्नालॉजी को छोड़ दे, जो उसने जान लिया है उसे भूल जाए और पीछे वापस लौट चले। रीचर्ड से लेकर गांधी तक के लोगों ने यही सुझाव दिया है--पीछे वापस लौट चलो।

लेकिन मैं आपसे कहूं, जीवन में पीछे लौटना असंभव है। पीछे लौटने जैसी बात ही असंभव है। कोई पीछे नहीं लौटता। और जो हमने जान लिया है उसे भूला नहीं जा सकता। वस्तुतः पीछे की तरफ कोई रास्ता ही नहीं होता है कि लौटा जा सके। जिस समय से हम गुजर कर आगे आ गए हैं वह कहीं भी नहीं है। अब उसमें पीछे जाना असंभव है। जैसे जवान आदमी पीछे बचपन में नहीं जा सकता और बूढ़ा आदमी पीछे जवानी में नहीं जा सकता, वैसे ही मनुष्य का समाज भी पीछे जाने में असमर्थ है। 

दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं, एक तो जिस भांति हम आगे जा रहे हैं उसी भांति आगे चले जाएं, जो कि खतरनाक मालूम होता है, जो कि आगे किसी बहुत बड़े गङ्ढे में ले जाएगा। दूसरा रास्ता जो लोग सुझाते हैं वह यह है कि पीछे लौट जाएं, जो कि असंभव है। 

जिस रास्ते पर हम हैं वह मौत में ले जाएगा। वह करीब-करीब मौत में ले गया है। हम नाममात्र को जीवित हैं, जीवन का कोई आनंद हमारे भीतर नहीं है। हम नाममात्र को जीते हुए कहे जा सकते हैं। क्योंकि हम श्वास लेते हैं, क्योंकि हम चलते हैं, और हमारी आंखें खुलती हैं और बंद होती हैं इसलिए हम अपने को जीवित समझ लें, तो बात दूसरी है। लेकिन जीवन की ऊर्जा, जीवन का संगीत, भीतर प्राणों का आनंद कुछ भी नहीं है। अगर श्वास का चलना ही जीवन है तो दूसरी बात। 

आगे एक रास्ता है, जो हमें निरंतर-निरंतर नीचे ले जा रहा है, जड़ता में ले जा रहा है। पीछे लौटने की बात व्यर्थ है, पीछे लौटना संभव नहीं है। जो जान लिया जाता है वह भूला नहीं जा सकता। ज्ञान को पोंछना असंभव है। फिर क्या है मार्ग? क्या कोई और मार्ग नहीं है

मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा, और मार्ग है। जिस भांति हम विज्ञान के जगत में आगे गए हैं, उसी भांति अगर हम आत्मज्ञान के जगत में भी आगे जाएं तो मार्ग है। आगे भी मार्ग है। जितनी शक्ति और जितना ज्ञान हमने पदार्थ का उपलब्ध किया है अगर उतना ही भीतर जो चेतना छिपी है उसका ज्ञान भी उपलब्ध हो तो मार्ग है। और जो बाहर दिखाई पड़ता है उससे बहुत ज्यादा भीतर है। क्योंकि बाहर तो जड़ता दिखाई पड़ती है, भीतर चैतन्य है। बाहर तो पदार्थ है, भीतर तो पदार्थ से ज्यादा कुछ है। भीतर तो परमात्मा है। 

धर्म और आनंद 

ओशो 

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