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Wednesday, September 20, 2017

शुन्य होना सीखो



अनेक भारतीय मित्र पत्र लिखकर मुझे पूछते हैं कि न मालूम कितने विदेशी मित्र हिंदी प्रवचन भी सुनने आते हैं! इनकी क्या समझ में आता होगा? समझ की बात नहीं है। वे जो विदेशी मित्र यहां बैठे हैं चुपचाप, उन्हें भी मालूम है, मुझे भी मालूम है कि हिंदी उनकी समझ में नहीं आएगी। मगर सत्संग का समझने, न-समझने से कुछ लेना-देना नहीं है। मेरी उपस्थिति तो समझ में आएगी। मेरी मौजूदगी तो समझ में आएगी।

सच तो यह है, मुझे बहुत से विदेशी मित्र लिखते हैं कि जब आप अंग्रेजी में बोलते हैं, तो हमारी बुद्धि बीच में आ जाती है। हम सोच-विचार में लग जाते हैं। वह मजा आ नहीं पाता, जो मजा जब आप हिंदी में बोलते हैं! क्योंकि बुद्धि को तो कुछ करने को बचता ही नहीं। हमारी कुछ समझ में तो आता नहीं कि आप क्या कह रहे हैं। सिर्फ आपकी उपस्थिति रह जाती है। हम रह जाते हैं, आप रह जाते हैं; बीच में कोई व्यवधान नहीं रह जाता। अंग्रेजी में बोलते हैं, हमारी समझ में आता है, तो सोच भी उठता है, विचार भी उठता है; ठीक है या गलत है! सहमति असहमति होती है; पक्ष विपक्ष होता है। क्या बात कही पते की--तो अच्छा लगता है। अगर हमारी धारणा के कोई विपरीत बात चली जाती है, तो दिल तिलमिला जाता है कि यह तो ईसाइयत के खिलाफ बात हो गई और मैं तो ईसाई घर में पैदा हुआ! यह कैसे हो सकता है? यह बात ठीक नहीं है। सत्संग में बाधा पड़ती है।

मगर इस देश के अभाग्य की कोई सीमा नहीं है। जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूं, तो जो हिंदुस्तानी मित्र अंग्रेजी नहीं समझते, वे आना बंद कर देते हैं। उन्हें क्या पड़ी है! अंग्रेजी समझ में आती नहीं है। सत्संग का राज भूल गए। वे मुझे लिखते हैं कि आप अंग्रेजी में बोलते हैं, तो हम क्या करें आ कर! इस बीच कुछ और काम-धाम देख लेंगे। कोई और उपयोग कर लेंगे समय का। क्यों समय गंवाना! अरे, जब समझ में ही नहीं आना है, तो समय क्यों गंवाना! जैसे समझ ही सब कुछ है। समझ के पार भी कुछ है। और जो समझ के पार है, वही सब कुछ है।

मुक्ता! शून्य होना सीख, तो तुझे मेरे उठने-बैठने में भी हरिकथा सुनाई पड़ेगी। बोलने में, न बोलने में हरिकथा सुनाई पड़ेगी। मैं तेरी तरफ देखूं या न देखूं, इससे कुछ भेद न पड़ेगा। और तब जरूर देखूंगा। देखना ही होगा। आंख अपने आप मेरी तरफ मुड़ जाएगी। 

इस भीड़ में भी मेरी आंखें उनको खोज लेती है। कुछ मुझे चेष्टा नहीं करनी पड़ती। चेष्टा करूं, तो मुश्किल हो जाए। लेकिन इस भीड़ में भी मेरी आंख अपने आप उन पर टिक जाती है, जो शून्य होकर बैठे हैं। वे अलग ही मालूम होते हैं। उनकी भाव-भंगिमा अलग है। उनकी मौजूदगी का रस अलग है। उनकी मौजूदगी की प्रगाढ़ता अलग है। जैसे कि हजारों बुझे दीए रखे हों और उनमें दो-चार दीए जल रहे हों। तो वे दीए जो जल रहे हैं, अलग ही दिखाई पड़ जाएंगे। कुछ खोजना थोड़े ही पड़ेगा कि कौन-कौन से दीए जल रहे हैं! हजारों दीए रखे हों बुझे, उस भीड़ में चार दीए जल रहे हों, तुम्हारी आंखें फौरन जलते हुए दीयों पर पहुंच जाएंगी।

यूं मैं इधर आता हूं; क्षण भर को हाथ जोड़कर तुम्हें देखता हूं। जाते वक्त क्षण भर को हाथ जोड़ कर तुम्हें देखता हूं। मगर उस क्षण भर में उन पर मेरी आंखें पहुंच जाती हैं--मैं पहुंचाता नहीं; पहुंच जाती हैं--जो जल गए दीए हैं। 

जो बुझे दीए हैं उन पर आंखें ले जाकर भी क्या करूं! और आंखें वहां जाएंगी भी, तो बुझे दीयों को क्या होगा? और अकड़ आ जाएगी। और बुझने का रास्ता मिल जाएगा। यूं ही बुझे हैं, और बुझे में बुझ जाएंगे। यूं ही मरे हैं--और मर जाएंगे। उन पर तो मेरी भूल से भी नजर पड़ जाए, तो मैं हटा लेता हूं। क्योंकि उनको कहीं भी यह भ्रांति न हो जाए कि मैं उन पर ध्यान दे रहा हूं।

जो बोले सो हरी कथा 

ओशो

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