पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना
चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही
बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई
आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह
अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत
नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम
इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर,
अशांति भी पूरी नहीं हो पाती।
हमारी बीमारी भी इतनी कम है कि हम चिकित्सा की तलाश में भी नहीं
निकलते। जब बीमारी बढ़ जाती है तो चिकित्सक की खोज शुरू होती है। लेकिन हम बचपन से
ही इस भांति पाले जाते हैं कि हम कुछ भी पूरी तरह नहीं कर पाते। न तो हम क्रोध
पूरी तरह कर पाते हैं कि अशांत हो जायें। न ही चिंता पूरी तरह कर पाते हैं कि मन
व्यथित हो जाये। न हम द्वेष पूरी तरह कर पाते हैं, न घृणा पूरी तरह कर पाते हैं कि मन में आग लग
जाये और नर्क पैदा हो जाये। हम इतने कुनकुने जीते हैं कि कभी आग जल ही नहीं पाती
और इसलिए पानी खोजने भी हम नहीं निकलते जो उसे बुझा दे। हमारा कुनकुना जीना ही,
ल्यूक-वार्म-लिविंग ही हमारी कठिनाई है।
जब कोई मुझसे पूछता है कि जब शांत होना इतना आसान है तो बहुत
लोग शांत क्यों नहीं हो जाते। तो पहली बात तो यह है कि वे अभी ठीक से अशांत ही
नहीं हुए हैं। उन्हें अशांत होना पड़ेगा। शांत तो आदमी क्षण-भर में हो जाता है, अशांत होने के लिए
जन्म-जन्म लेने पड़ते हैं, लंबी यात्रा है। यह इतने जन्मों की
हमारी जो यात्रा है, यह शांति की यात्रा नहीं है, शांति तो क्षण-भर में घटित हो जाती है। यह इतने जन्मों की यात्रा हमारे
अशांत होने की यात्रा है जो हम पूरी तरह अशांत हो जाते हैं। जब अशांति की चरम
अवस्था आ जाती है, क्लाइमेक्स आ जाता है, तब हम लौटना शुरू करते हैं।
बुद्ध एक गांव में गये--और जो आज मुझसे आपने पूछा है एक आदमी ने
उनसे भी आकर पूछा। और उस आदमी ने उनसे कहा था कि चालीस वर्षों से निरंतर आप
गांव-गांव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए, कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है,
कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा।
बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर
नहीं चलते हैं कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, कौन
नहीं शांत हो गया। बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें।
बुद्ध मुश्किल
में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का?
बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूं। और एक
छोटा-सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर
दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं
कर लाऊंगा। और सांझ आ जाता हूं हिसाब पक्का रखना, मैं जानना
ही चाहता हूं कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए; कितने
लोगों ने परमात्मा पा लिया; कितने लोग आनंद को उपलब्ध हो
गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि
किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।
बुद्ध ने उससे कहा,
कि यह कागज ले जाओ और गांव में एक-एक आदमी से पूछ आओ, उसकी जिंदगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है?
वह आदमी गया। उसने गांव में--एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोपड़ियां थीं, उसने एक-एक
घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत जरूरत है, और
किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने
कहा--और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए।
किसी ने कहा--और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता
है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए,
स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि
उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस,
और सब ठीक है। सारे गांव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो
रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूंगा जाकर। क्योंकि उसे खयाल आ गया कि
शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव-भर में एक आदमी नहीं मिला
जिसने कहा, शांति चाहिए; जिसने कहा,
परमात्मा चाहिए; जिसने कहा आनंद चाहिए। बुद्ध
के सामने खड़ा हो गया। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये कि सांझ वह आदमी मुश्किल में
पड़ गया।
बुद्ध ने कहा,
ले आये हो? उसने कहा, ले
तो आया हूं। बुद्ध ने कहा, कितने लोग शांति चाहते हैं?
उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गांव में।
बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शांति? तो
रुक जा। उसने कहा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूं, अभी शांति लेकर क्या करूंगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये
तो मैं आऊंगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है, अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता
है वही सवाल? कि कितने लोग शांत हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूं।
कोई किसी को शांत नहीं कर सकता, लेकिन हम शांत हो सकते हैं। पर अशांत हो गये
हों तभी।
जीवन ही है प्रभु (साधना शिविर)
ओशो
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