हर आदमी कहता है, बचपन में दुख नहीं था। अगर लौट सकता हो आदमी, फौरन लौट
जाए। वह तो लौट नहीं सकता है, इसलिए रुका रह जाता है। कहता है बचपन में
दुख नहीं था। अगर उसका वश चले तो वह कहे कि मां के गर्भ में बिलकुल दुख
नहीं था। अगर लौट सके तो लौट जाए, लेकिन लौट नहीं सकता। फिर आगे बढ़ता जाता
है। लेकिन जीवन के चुनाव में हम पीछे लौट सकते हैं। हम मूर्च्छा में लौट
सकते हैं। हम तरकीबें खोज सकते हैं कि हम मूर्च्छित हो जाएं।
और वह जो दूर से आवाजें आती हैं, उन आवाजों के शब्द भी हमारी समझ में
नहीं आते। क्योंकि आनंद हम जानते नहीं कि किस चीज का नाम है! कौन सी
चिड़िया है जिसको आनंद कहें! दुख हम जानते हैं, अच्छी तरह जानते हैं। और हम
यह भी जानते हैं कि जितना सुख पाने की कोशिश की, उतना दुख पाया। अब यह भी
डर लगता है कि आनंद पाने की कोशिश में कहीं और झंझट में न पड़ जाएं। जितना
सुख पाने की कोशिश की उतना दुख पाया, तो यह आनंद हमें सुख का निकटतम मालूम
पड़ता है कि कुछ सुख की ही गहन अनुभूति होगी। मगर झंझट से भी डरते हैं,
क्योंकि सुख पाने की जितनी कोशिश की उतना दुख पाया, कहीं आनंद पाने की
कोशिश में और भी मुसीबत न हो जाए, कहीं कोई महा दुख न मिल जाए। इसलिए सुन
लेते हैं, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेते हैं। उस पार के लोगों को कहते हैं,
तुम भगवान हो, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो, बड़े अच्छे हो। हम तुम्हारी पूजा
करेंगे, लेकिन हमें पीछे लौटना है।
अज्ञात का भय मालूम पड़ता है। जो थोड़े बहुत सुख हमने जमा रखे हैं, कहीं
वे भी न छूट जाएं। वे सब छूटते मालूम पड़ते हैं आगे बढ़ो तो। क्योंकि हमने
उसी सेतु पर जो कि सिर्फ पार होने के लिए था, घर बना लिया है, वहीं रहने
लगे हैं। वहीं हमने सब इंतजाम कर लिया है। अपना बैठकखाना जमा लिया है उसी
सेतु पर। अब कोई हमें कहता है, आगे आ जाओ, तो हमें डर लगता है कि इस सब का
क्या होगा! यह सब छोड़ कर जाना पड़ेगा आगे! तो हम कहते हैं, जरा वक्त आने दो,
बूढ़े होने दो, मौत करीब आने दो। जब यह सब छूटने लगेगा, तब हम एकदम से आ
जाएंगे, क्योंकि फिर कोई डर नहीं रहेगा।
लेकिन जितनी मौत करीब आती है, उतनी पकड़ गहरी होती है। क्योंकि जितनी मौत
करीब आती है उतना डर लगता है कि छूट न जाए, तो मुट्ठी जोर से कसते हैं।
इसलिए बूढ़ा आदमी निपट कृपण हो जाता है, जवान आदमी उतना कृपण नहीं होता।
उसकी कृपणता बढ़ जाती है बूढ़े की सब तरफ से। वह एकदम जोर से पकड़ता है। वह
कहता है, अब जाने का वक्त हुआ, कहीं सब छूट न जाए। अगर ढीला पड़ा, कहीं हाथ न
छूट जाए, इसलिए जोर से पकड़ लेता है। यह जोर की पकड़ ही बूढे आदमी को कुरूप
कर जाती है, अन्यथा बूढ़े आदमी के सौंदर्य का कोई मुकाबला न हो। हम सुंदर
बच्चे जानते हैं, फिर उनसे कम सुंदर जवान जानते हैं, और सुंदर के तो बहुत
कम हैं। कभी कभी घटना घटती है। क्योंकि जैसे जैसे कृपणता बढ़ती है और पकड़
बढ़ती है, वैसे वैसे सब कुरूप होता जाता है।
खुले हाथ सुंदर हैं, बंधी हुई मुट्ठी कुरूप हो जाती है। मुक्ति सौंदर्य
है और बंधन गुलामी। सोचता तो है कि छोड़ देंगे कल, जब मौका छोड़ने के लिए आ
जाएगा तब छोड़ देंगे। लेकिन जो आदमी उस मौके की प्रतीक्षा करता है कि वह जब उससे छीना जायेगा तब छोड़ेगा, वह
आदमी छोड़ना ही नहीं चाहता। और जब छीना जाता है तब पीड़ा आती है, और जब छोडा
जाता है तो पीड़ा नहीं आती।
में मृत्यु सिखाता हूँ
ओशो
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