फ्रायड जैसे मनोवैशानिक तो कहते हैं कि परमेश्वर की धारणा पिता की धारणा
का ही विस्तार है, उसका ही प्रक्षेप है। जो बच्चे पिता के पास बड़े होते
हैं, और जो पिता के प्रेम से भर जाते हैं, और पिता के प्रति आदर से भर जाते
हैं, वे बच्चे बाद में धार्मिक हो जाएंगे। और जो बच्चे पिता के प्रति आक्रोश से भर जाते हैं, विरोध विद्रोह से भर जाते हैं, वे बच्चे बाद में नास्तिक
हो जाते हैं। पिता और बेटे के बीच कैसा संबंध है, इस पर निर्भर करेगा कि
व्यक्ति और परमात्मा के बीच कैसा संबंध होगा। फ्रायड की इस बात में अर्थ
है।
लेकिन पिता की तरफ भी अगर हम ध्यान दें, तो वहां भी दो धाराएं मौजूद हो
जाती हैं। पिता प्रेम भी करता है, लेकिन पिता से बच्चा भयभीत भी होता है।
अकेला प्रेम ही नहीं है पिता, साथ में भय भी है। और बडा भय तो यही है कि वह
चाहे तो अपने प्रेम को देने से रोक सकता है।
बड़ा भय क्या है बच्चे के सामने? मां या पिता चाहें, तो प्रेम देने से वे
वंचित कर सकते हैं। वह भय भी है। वे प्रेम भी दे सकते हैं, वे प्रेम देने
से रोक भी सकते हैं। और बच्चे के लिए इससे बडी भय की कोई बात नहीं होती।
क्योंकि असहाय है बच्चा और पिता और मां का प्रेम उसे न मिल सके, तो वह खत्म
हो जाएगा। तो मृत्यु का भय मालूम होता है। अगर मां इतना ही मुंह फेर ले,
कह दे कि नहीं, मुझे तुझसे कुछ भी लेना देना नहीं, तो बच्चे की पीड़ा हम
नहीं समझ सकते हैं कि कितनी भयंकर हो जाती है।
जिससे हम प्रेम करते हैं, उसके साथ साथ छाया में छिपा हुआ भय भी है। और
वह भय इस बात का है कि प्रेम नष्ट हो सकता है, प्रेम टूट सकता है, प्रेम न
दिया जाए, यह हो सकता है। प्रेम के और हमारे बीच में अवरोध आ सकते हैं।
इसलिए बाप से बेटा सिर्फ प्रेम ही नहीं करता, भयभीत भी होता है। ये
दोनों ही भाव साथ जुड़े रहते हैं। और बड़ी कला यही है, इन दोनों के बीच
संतुलन पिता स्थापित कर ले। नहीं तो हर हालत में अयोग्य पिता सिद्ध होता
है। और योग्य पिता होना बड़ा कठिन है। बच्चे पैदा करना बिलकुल आसान बात है।
उससे आसान और क्या होगा! लेकिन पिता होना बड़ा कठिन है। मा होना बड़ा कठिन
है; जन्म देना बिलकुल आसान है।
कठिनाई यही है कि भय और प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करना है। अगर बाप
इतना ज्यादा भयभीत कर दे बेटे को कि बेटे की आस्था ही प्रेम से उठ जाए, तो
भी बेटा नष्ट हो जाएगा। क्योंकि जिंदगीभर अब वह किसी को प्रेम न कर सकेगा।
जिस बच्चे को प्रेम नहीं मिला हो बचपन में, वह बिना प्रेम के ही जीएगा।
वह बातें कितनी ही प्रेम की करे, कविताएं लिखे, शास्त्र रच डाले, लेकिन
प्रेम उसके जीवन में नहीं होगा। वह प्रेम का पहला जो संस्पर्श था, जिससे
प्रेम का बीज जमता, वह नहीं जम पाया। अगर मां और बाप बेटे को प्रेम न कर
सकें, तो बेटा फिर किसी को प्रेम नहीं कर पाएगा। और वह जो क्रुद्ध बेटा है,
वह सब तरफ से विनाश का कारण हो जाएगा।
आज सारी दुनिया में विद्यालय, विश्वविद्यालय बड़े उत्पात के कारण बने
हैं। विशेषकर पश्चिम के मुल्कों में बहुत भयंकर आग है। पूरब के मुल्कों में
भी फैल रही है। क्योंकि पूरब के शिक्षालय भी पूरब के नहीं हैं, वे भी
पश्चिम की अनुकृतिया हैं, नकल हैं। तो वहां जो बीमारी पैदा होती है, वह कोई
तीन चार साल में पूरब में आ जाती है। उसमें भी हम पीछे हैं। वहा दवा कोई
नई होती है, उसको भी तीन साल लग जाते हैं, हमारे मुल्क के अस्पताल में
उपयोग में आए तब तक। वहां कोई बीमारी भी पैदा होती है, उसको भी आने में
वक्त लग जाता है। हम हर हालत में पीछे हैं।
कठोपनिषद
ओशो
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