शिव की जगह-जगह पूजा हो रही है, लेकिन पूजा की वात नहीं है। शिवत्व
उपलब्धि की बात है। वह जो शिवलिंग तुमने देखा है बाहर मंदिरों में, वृक्षों
के नीचे, तुमने कभी ख्याल नहीं किया, उसका आकार ज्योति का आकार है। जैसे
दीये की ज्योति का आकार होता है। शिवलिंग अंतर्ज्योति का प्रतीक है। जब
तुम्हारे भीतर का दीया जलेगा तो ऐसी ही ज्योति प्रगट होती है, ऐसी ही
शुभ्र! यही रूप होता है उसका। और ज्योति बढ़ती जाती है, बढ़ती जाती है। और
धीरे धीरे ज्योतिर्मय व्यक्ति के चारों तरफ एक आभामंडल होता है; उस
आभामंडल की आकृति भी अंडाकार होती है।
रहस्यवादियों ने तो इस सत्य को सदियों पहले जान लिया था। लेकिन इसके लिए
कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं थे। लेकिन अभी रूस में एक बड़ा वैज्ञानिक प्रयाग
ची नहा है-किरलियान फोटोग्राफी। मनुष्य के आसपास जो ऊर्जा का मंडल होता
है, अब उसके चित्र लिये जा सकते हैं। इतनी सूक्ष्म फिल्में बनाई जा चुकी
हैं, जिनसे न केवल तुम्हारी देह का चित्र बन जाता है, बल्कि देह के आसपास
जो विद्युत प्रगट होती है, उसका भी चित्र बन जाता है। और किरलियान चकित हुआ
है, क्योंकि जैसे -जैसे व्यक्ति शांत होकर बैठता है, वैसे – वैसे उसके
आसपास का जो विद्युत मंडल है, उसकी आकृति अंडाकार हो जाती है। उसको तो
शिवलिंग का कोई पता नहीं है, लेकिन उसकी आकृति अंडाकार हो जाती है। शांत
व्यक्ति जब बैठता है ध्यान तो उसके आसपास की ऊर्जा अंडाकार हो जाता है।
अशांत व्यक्ति के आसपास की ऊर्जा अंडाकार नहीं होती, खंडित होती है, टुकड़े
-टुकड़े होती है। उसमें कोई संतुलन नहीं होता। एक हिस्सा छोटा- कुरूप होती
है।
शिवलिंग ध्यान का प्रतीक है। वह ध्यान की आखिरी गहरी अवस्था का प्रतीक है।
और जिसने ध्यान जाना हो, उसके ही भीतर गोरख जैसा ज्ञान पैदा होता है।
संतों की परंपरा में गोरख का बड़ा मूल्य है। क्योंकि गोरख ने जितनी ध्यान को
पाने की विधिया हद हैं, उतनी किसी ने नहीं दी हैं। गोरख ने जितने द्वार
ध्यान के खोले, किसी ने नहीं खोले। गोरख ने इतने द्वार खोले ध्यान के कि
गोरख के नाम से एक शब्द भीतर चल पड़ा है-गोरखधंधा! गोरख ने इतने द्वार खोले
कि लोगों को लगा कि यह तो उलझन की बात हो गयी। गोरख ने एक- आध द्वार नहीं
खोला, अनंत द्वार खोल दिये! गोरख ने इतनी बातें कह दीं, जितनी किसी ने कभी
नहीं कही थीं।
बुद्ध ने ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, विपस्सना; बस पर्याप्त। महावीर
ने ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, शुक्ल ध्यान; बस पर्याप्त। पतंजलि ने
ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, निर्विकल्प समाधि। बस पर्याप्त। गोरख ने
परमात्मा के मंदिर के जितने संभव द्वार हो सकते हैं, सब द्वारों की चाबिया
दी हैं।
लोग तो उलझन में पड़ गये, बिगूचन में पड़ गये, इसलिए गोरखधंधा शब्द बना
लिया। जब भी कोई बिगूचन में पड़ जाता है तो वह कहता है बड़े गोरखधंधे में पड़ा
हूं। तुम्हें भूल ही गया है कि गोरख शब्द कहां से आता है; गोरखनाथ से आता
है। गोरखनाथ अद्भुत व्यक्ति हैं। उनकी गणना उन थोड़े -से लप्तेगे में होनी
चाहिए-कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पतंजलि, गोरख… बस। इन थोड़े – से लोगों में ही
उनकी गिनती हो सकती है। वे उन परम शिखरों में से एक हैं।
हंसा तो मोती चुने
ओशो
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