तुम ध्यान रखना, निंदा का एक मनोविज्ञान है। क्यों लोग निंदा पसंद करते
हैं? तुम अगर किसी से कहो कि अ नाम का आदमी संत हो गया है, कोई मानेगा
नहीं। पच्चीस दलीलें लोग लाएगे कि नहीं, संत नहीं है। सब धोखा घडी है। सब
पाखंड है। और तुम किसी के संबंध में कहो कि फला आदमी चोर हो गया है; तो कोई
विवाद न करेगा। वह कहेगा. हमें पहले से ही पता है। वह चोर है ही। क्या
हमें बता रहे हो! वह महाचोर है। तुम्हें अब पता चला! तुम्हारी आंखें अंधी
थीं।
तुमने कभी देखा : निंदा जब तुम किसी की करो, तो कोई प्रमाण नहीं मांगता।
और प्रशंसा जब करो, तो हजार प्रमाण मांगे जाते हैं। और, और भी एक कठिनाई
है कि प्रशंसा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और निंदा
जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण होते हैं। क्योंकि निंदा तो क्षुद्र
जगत की बात है, उसके लिए प्रमाण हो सकते हैं।
समझो किसी आदमी की तुम निंदा कर रहे हो कि उसने चोरी की। तो चार आदमी
गवाह की तरह खड़े किए जा सकते हैं कि इन्होंने उसे चोरी करते देखा। लेकिन
तुम कहते हो कि कोई आदमी जाग गया, प्रबुद्ध हो गया, इसके लिए कहां गवाह
खोजोगे! कहां से गवाह मौजूद करोगे? कौन कहेगा कि हां, मैंने इसको बुद्ध
होते देखा! यह बात तो देखने की नहीं है। यह तो बुद्ध ही कोई हो, तो देख
सके, जो स्वयं बुद्ध हो, वह देख सके। दूसरा तो कोई इसका गवाह नहीं हो सकता।
मजे की बात देखना। जो प्रशंसा योग्य तत्व हैं, उनके लिए प्रमाण नहीं
होते। और उनके लिए लोग प्रमाण पूछते हैं। और जो निंदा है, उसके लिए हजार
प्रमाण होते हैं, लेकिन कोई प्रमाण पूछता ही नहीं। प्रमाण के बिना ही
स्वीकार कर लेते हैं लोग। लोग निंदा स्वीकार करना चाहते हैं। लोग तैयार ही
हैं कि निंदा करो।
तुम्हारे अखबार निंदा से भरे होते हैं। तुम अखबार पढ़ते ही इसीलिए हो कि
आज किस किस की बखिया उधेडी गयी। अखबार में जिस दिन निंदा नहीं होती, उस दिन
तुम उसे उदासी से सरकाकर एक तरफ रख देते हो कि कुछ खास बात ही नहीं है। जब
अखबार में हत्या की खबर होती है, चोरी की, किसी की स्त्री के भगाने की,
तलाक की, आत्महत्या की, तब तुम एकदम चश्मा ठीक करके एकदम अखबार पर झुक जाते
हो कि एक शब्द चूक न जाए! इसलिए बेचारा अखबार छापने वाला आदमी निंदा की
तलाश में घूमता रहता है।
पत्रकारों की दृष्टि ही मिथ्या हो जाती है, क्योंकि उनका धंधा ही खराब
है। उनके धंधे का मतलब ही यह है कि जनता जो चाहती है, वह लाओ खोजबीन कर।
अच्छे से अच्छे आदमी में कुछ बुरा खोजो। सुंदर से सुंदर में कोई दाग खोजो।
चांद की फिकर छोड़ो। चांद पर वह जो काला धब्बा है, उसकी चर्चा करो। क्योंकि
लोग धब्बे में उत्सुक हैं, चांद में उत्सुक नहीं हैं। चांद की बात करो, तो
कोई अखबार खरीदेगा ही नहीं।
इसलिए जो पत्रकारिता है, वह मूलत: निंदा के रस की ही कला है। कैसे खोज
लो कहीं से भी कुछ गलत कैसे खोज लो! और जब तुम खोजने का तय ही किए बैठे हो,
तो जरूर खोज लोगे। क्योंकि जो आदमी जो खोजने निकला है, उसे मिल जाएगी।
यह दुनिया विराट है। इसमें अंधेरी रातें हैं और उजाले दिन हैं। इसमें
गुलाब के फूल हैं और गुलाब के काटे हैं। जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह
कहेगा कि दुनिया बड़ी बुरी है। यहां दो रातों के बीच में एक छोटा सा दिन है।
दो अंधेरी रातें, और बीच में छोटा सा दिन! और जो प्रशंसा खोजने निकला है,
वह कहेगा कि दुनिया बड़ी प्यारी है। परमात्मा ने कैसी गजब की दुनिया बनायी
है. दो उजाले दिन, बीच में एक अंधेरी रात!
जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह गुलाब की झाड़ी में काटो की गिनती कर
लेगा। और स्वभावत: काटो की गिनती जब तुम करोगे, तो कोई न कोई काटा हाथ में
गड़ जाएगा। तुम और क्रोधाग्नि से भर जाओगे। अगर कांटा हाथ में गड़ गया और खून
निकल आया, तो तुम्हें जो एकाध फूल खिला है झाड़ी पर, वह दिखायी ही नहीं
पड़ेगा। तुम अपनी पीड़ा से दब जाओगे। तुम गालिया देते हुए लौटोगे।
जो आदमी फूल को देखने निकला है, वह फूल से ऐसा भर जाएगा कि उसे काटे भी
प्यारे मालूम पड़ेंगे। वह फूल से ऐसा रसविमुग्ध हो जाएगा कि उसे यह बात
दिखायी पड़ेगी कि काटे जरूर भगवान ने इसीलिए बनाए होंगे कि फूलों की रक्षा
हो सके। ये फूलों के पहरेदार हैं।
सब तुम पर निर्भर है, कैसे तुम देखते हो, क्या तुम देखने चले हो।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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