लोग गुरु को खोजते हैं बिना इसकी फिक्र किए कि वे अभी शिष्य होने के
योग्य हैं या नहीं। लोग परमात्मा को भी खोजते हैं, बिना इसके लिए जरा भी
प्रयास किए कि उनके पास वे आंखें हैं भी कि जो परमात्मा सामने हो, तो उसे
देख पाएं। और परमात्मा सदा ही सामने है और गुरु भी इतना ही निकट है।
इस अस्तित्व में जिसकी भी सत्य के लिए प्यास है, उसे मार्गदर्शन
देनेवाला बहुत निकट ही उपलब्ध है। यहां कभी भी उनकी कमी नहीं है कि जो आपका
हाथ पकड़ें और रास्ते पर ले जाएं। और अगर आपको लगता हो कि उनकी कमी है, तो
आप एक ही बात समझना कि आपकी योग्यता नहीं कि कोई आपका हाथ पकड़े। या शायद
अगर कोई आपका हाथ भी पकड़े तो आप अपना हाथ झटक कर छुड़ा लेंगे। या आपका हाथ
पहले ही किन्हीं और ने पकड़ रखे हैं। या आपके हाथ इतने भरे हैं आपने किसी और
के हाथ पकड़े रखे हैं कि अब उन हाथों को हाथ में लेकर आपको किसी यात्रा पर
ले जाना संभव नहीं है।
गुरु न मिले तो एक ही बात समझना कि शिष्य होना अभी संभव नहीं हुआ। जिसके
आप योग्य हो जाते हैं, वह तत्क्षण मिल जाता है; इसमें जरा भी संदेह नहीं
है। अगर न मिले, तो अर्थ एक ही होता है कि हम हैं अयोग्य।
समाधी के सप्त द्वार
ओशो
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