हम शब्दों से किसको धोखा दे रहे हैं? काटे को गुलाब कहोगे तो कांटा
गुलाब हो जायेगा? काटा तो कांटा ही रहेगा। गुलाब कह देने से सिर्फ तुम धोखा
खाओगे। और आज नहीं कल तुम्हारे ही हाथ में काटा चुभेगा। तड़फोगे तब। और
गुलाब कहोगे तो तो चुभेगा ही। क्योंकि गुलाब को तोड़ने जाओगे और काटा तोड़
लोगे। लेकिन हम अच्छे शब्द उपयोग करने की कोशिश करते हैं। सत्य तो वैसे के
ही वैसे बने रहते हैं।
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ जैसे शब्द को बिलकुल विकृत कर दिया। इससे
दोहरे धोखे पैदा हुए। अछूत को लगा कि वह हरिजन है, अछूत नहीं। है वह वही का
वही। न मंदिर में प्रवेश है। न कुएं पर पानी भर सकता है। न ब्राह्मण की
बेटी से विवाह कर सकता है। न बनिये की दुकान पर बैठकर चिलम पी सकता है। वही
का वही है, मगर हरिजन की अकड़ आ गयी। वह सोचता है : मैं हरिजन हूं! कहां हम
उनको हरिजन कहते थे जो पा गये राम को; जो पहुंच गये राम को। बहुत थोड़े -से
लोगों को हम हरिजन कहते थे।
गांधी ने शब्द को विकृत कर दिया। हरिजनों का धोखा हो गया और हिंदुओं को
धोखा हो गया कि अच्छा शब्द दे दिया, अब और क्या चाहिए! लगा दिया लेबल
अच्छा, अब और क्या चाहिए! अब इतने से तृप्त हो जाओ। दशा वही, दीनता ही, दुख
वही, पीड़ा वही…। शब्दों से जरा सावधान रहना चाहिए!
हरिजन हरिसू यूं मिल्या। हरिजन तो वह है, जो हरि से इस भांति मिल गया,
जैसे जल में जल को डाल दो और दानों जल एक हो जायें; जैसे नदी सागर में उतरे
और एक हो जाये। जो राम से ऐसा मिल गया। जो हरि के साथ एक हो गया। सिर्फ
बुद्ध पुरुषों को ही हरिजन कहा जा सकता है। ब्राह्मण भी हरिजन नहीं हैं,
शूद्र तो होते। ब्रह्म को जानते तो हरिजन होते। ब्राह्मण भी ब्राह्मण नहीं
है, न हरिजन है। तो शूद्र तो क्या हरिजन होंगे! कभी- कभी कोई विरला व्यक्ति
हरिजन हो पाता है।
हंसा तो मोती चुने
ओशो
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