स्वामी राम कहा करते थे, एक बार अमरीका के एक दफ्तर में उनसे बड़ी भूल हो
गई। संन्यासी थे, द्वार-दरवाजों का कुछ पता नहीं था। जिस झोपड़ी में रहते
आए थे हिमालय में, उसमें कोई द्वार-दरवाजा भी न था। एक दफ्तर में प्रवेश
करने के लिए बड़े जोर से उन्होंने धक्का दिया–बिना देखे कि दरवाजे पर “पुल’
लिखा है या “पुश’, अपनी तरफ खीचों या धकाओ क्या लिखा है, यह देखा नहीं–और
जोर से धक्का दिया। दरवाजा नहीं खुला, दरवाजा सख्त दीवाल हो गया। तब
उन्होंने नीचे देखा, लिखा था, खींचो, पुल। खींचते ही द्वार खुल गया। फिर वे
बहुत बार कहा करते थे कि परमात्मा के द्वार पर भी पुश नहीं लिखा है, पुल
लिखा है। “धक्का दो’ नहीं लिखा है–खींचो अपनी ओर।
अपनी ओर खींचने की कला क्या है?
अपनी ओर खींचने की कला समर्पण है।
पहाड़ पर भी वर्षा होती है, लेकिन पहाड़ वर्षा को रोक नहीं पाता; क्योंकि
पहाड़ पहले से ही भरा हुआ है, जगह भी नहीं है कि अब कुछ और वर्षा उसमें समा
जाए। होती है पहाड़ पर वर्षा, उतर आती है नीचे, भर जाती है खाई-खड्डों में,
झीलों में; क्योंकि झीलें खाली हैं, खींच लेती हैं।
समर्पण खींचता है, क्योंकि आप जब भीतर खाली होते हैं, झुके होते हैं,
ग्राहक होते हैं, गर्भ बन जाते हैं। तब आप खींचना शुरू कर देते हैं, उस
खिंचाव में ही दीवालें, दरवाजे बन जाते हैं।
प्रेम खींचता है, संघर्ष धकेलता है, समर्पण खींचता है, संघर्ष धकेलताहै।
और हम सब संघर्षरत हैं। वही हमारी तकलीफ है, वही हमारी पीड़ा है। और हम
अपने ही हाथों से दरवाजे को दीवाल बना लिए हैं। और फिर छाती पीटते हैं, सिर
पटकते हैं, रोते हैं कि यह क्या हो रहा है–कितनी मैं मेहनत कर रहा हूं,
दरवाजा खुलता नहीं है। लेकिन इस दरवाजे पर सनातन नियम है कि धकाओ मत,
खींचो।
और खींचने की कला गहरी है। धकाना बहुत आसान है, खींचना बहुत मुश्किल है।
क्योंकि धकाने में हिंसा है, और हिंसा हममें काफी है। और खींचने के लिए
प्रेम चाहिए, और प्रेम हममें बिलकुल नहीं है। धकाना आसान है; क्योंकि धकाने
में आक्रमण है और हमारा अहंकार बहुत आक्रमक है। खींचना मुश्किल है,
क्योंकि खींचने में समर्पण है और हमारा अहंकार समर्पित नहीं होने देता।
आज ही कोई मित्र मेरे पास आए थे और कह रहे थे कि आपसे बहुत कुछ सीखना
चाहता हूं, लेकिन समर्पण नहीं कर सकता हूं। तो मैंने उनको कहा कि मत करें,
और सीखने की कोशिश करें। लेकिन सीख न पाएंगे; क्योंकि सीखने की जो वृत्ति
है, वह समर्पण के पीछे ही फलित होती है, उसके पहले फलित नहीं होती।
समर्पण का मतलब ही यह होता है कि अब आप कुछ दें, तो मैं लेने को राजी
हूं–कि मैं गङ्ढा बन गया हूं, अगर वर्षा होगी, तो मैं भर जाऊंगा, और झील बन
जाएगी। यह ऐसी ही बात है, जैसे कोई पहाड़ कहे कि मैं वर्षा की झील तो बनने
को राजी हूं, लेकिन गङ्ढा बनने को राजी नहीं हूं। तो क्या कहेंगे हम उस
पहाड़ से कि मत बन। लेकिन तब झील बनने का खयाल छोड़ दो।
सीखना संभव है, जब कोई झुकने को राजी हो। और जितना झुकता है, उतना ही
सीख लेता है। और यह सवाल भी नहीं कि किसके सामने झुकता है। झुकने की कला
आनी चाहिए, झुके होने का भाव होना चाहिए, फिर सब तरह से आदमी सीख लेता है।
और यह सवाल भी नहीं है कि कोई महा गुरु के पास ही सीखने जाना पड़ेगा। असल
में झुकना आता हो, तो पूरा अस्तित्व गुरु हो जाता है। और झुकना न आता हो, तो परमात्मा भी आपके सामने खड़ा रहे–वह गुरु नहीं है। आप झुककर
किसी भी चीज को गुरु बना लेते हैं। और आप झुककर किसी भी चीज को दरवाजा कर
देते हैं।
यह अस्तित्व अपनी संपत्ति को लुटाने को सदा तैयार है; जरा सी भी कंजूसी
नहीं है। और अस्तित्व जरा भी कोशिश नहीं कर रहा है कि आप वंचित रह जाएं।
अगर आप वंचित हैं, तो समझना कि आपकी ही कुशलता, आपकी ही कला, आपकी ही
समझदारी, आपकी ही बुद्धिमानी कारण रही है। धक्के दे रहे हैं–वहां, जहां
खींचना है। लड़ रहे होंगे वहां, जहां हारना ही जीतने की कला है। सभी जगह जीत
कर जीत नहीं मिलती। और जितनी गहन हो यात्रा, उतनी ही मुश्किल हो जाती है
जीत–जीतने की आशा से। कुछ जगह तो जीतने वाले बुरी तरह हारते हैं।
एक अनुभव जो सामान्यतः सबको है, शायद नहीं भी है, लेकिन हो सकता था वह
है प्रेम का अनुभव। प्रेम में अगर किसी ने जीतने की कोशिश की, तो वह प्रेम
से वंचित रह जाएगा। अगर उसने जबर्दस्ती की, तो सब द्वार प्रेम के बंद हो
जाएंगे। अगर छीना-झपटी की, तो कुछ भी न मिलेगा; उसका भिक्षा-पात्र खाली रह
जाएगा,वह भिखारी ही मरेगा। जिन्हें प्रेम की थोड़ी सी भी झलक है, वे समझ
सकते हैं कि वहां हार जाना ही जीतने की कला है। और जो जितना हार जाता है,
उतना जीता हुआ हो जाता है।
समाधी के सप्त द्वार
ओशो
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